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श्री-वीरवर्धमानचरित इन्द्रभूति गौतमकी प्रव्रज्याकी बात पवनवेगसे नगरमें पहुँची। जब उनके छोटे भाई अग्निभूति और बायुभूतिने यह सुना तो उन्हें विश्वास ही न हुआ और यथार्थ बालके निर्णयार्थ वे दोनों भी अपने-अपने पाँचपांच सौ शिष्योंके साथ भगवान के सा र पहुँचे। भगवानने उन्हें भी सम्बोधित करते हुए उनके मनकी शंकाओंको कहा और उन्हें भी सुयुक्तियोंसे दूर किया। वे लोग भी अपने शिष्यों के साथ दीक्षित हो गये।
उक्त तीनों भाइयोंके द्वारा शिष्यत्व स्वीकार करनेके समाचार पाकर यज्ञस्थलपर उपस्थित सुधर्मा आदि शेष विद्वान् भी अपने शिष्योंके साथ भगवानके समीप आये । भगवानने सबके नामोंके साथ सम्बोधित करते हुए उनकी मनोगत शंकाओंको कहा और प्रबल यक्तियोंसे उनका समाधान किया। जिससे प्रभावित होकर उन सभी विद्वानोंने शिष्यत्व स्वीकार कर अपने शिष्योंके साथ जिनदीक्षा ग्रहण की और भगवान्ने उनको अपने-अपने शिष्य-मुनियों का गणधर बनाया । ११. विचारणीय स्थल
सकलकोतिने प्रस्तुत चरित्रमें 'गुणस्थान' शब्दको पुल्लिगमें प्रयोग किया है, ( देखो, अधि. १६, श्लो. ६०) जबकि सर्वत्र अन्य आचार्योंने इसका प्रयोग नपुंसक लिंगमें ही किया है। इसी प्रकार 'तत्व' शब्दका भी पुल्लिगमें प्रयोग किया है । ( देखो, अधि. १७, श्लोक २ ) इसी प्रकार कारण आदि शब्दोंका भी प्रयोग पुल्लिगमें किया है। कहीं-कहींपर सन्धि-नियमको भी नहीं अपनाया गया है। यथा-'अभ्यणे अन्तर्वली' । ( अधि. ८, श्लो. १४) आदि । प्रथम अधिकारके श्लोक ४१ में 'जम्बूस्वामिरन्तिमः', तथा उसी अधिकारके ५४वें श्लोकमें 'पजामहानये' आदि वाक्य भी दृष्टिगोचर होते हैं। मेरे सम्मुख उपस्थित प्रतियोंमें ये पाठ इसी प्रकारसे हैं । सम्भव है कि किन्हीं प्राचीन प्रतियोंमें इनके स्थानपर अन्य प्रकारके पाठ हों।
कितने ही स्थलोंपर भूतकालके स्थानपर विधिलकारका प्रयोग सकलकीतिने किया है। ( देखो, अधिकार ६, श्लो. ८०-९६)
१२. उपसंहार
सकलकीर्तिने प्रायः अपने सभी ग्रन्थोंमें उसका परिमाण दिया है। तदनुसार प्रस्तुत चरित्र ३०३५ श्लोक प्रमाण है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ग्रन्थोंका परिमाण ३२ अक्षरवाले अनुष्टुप् श्लोकसे गिना जाता है। प्रस्तुत ग्रन्थकी रचना जैसी सुगम और हृदयस्पर्शिनी है, वैसी ही उनके सभी ग्रन्थोंकी है। वे अपने पाठकोंको मानो सरल-सुबोध रचनाके द्वारा जैन सिद्धान्तोंके गूढ़ एवं गहन रहस्योंसे अवगत करा देना चाहते थे। सकलकीतिके पश्चात् इतने अधिक ग्रन्थोंका निर्माता अन्य कोई आचार्य, भट्टारक या विद्वान् नहीं हुआ है । ग्रन्थरचनाओंके द्वारा उन्होंने स्वोपकारके साथ पाठकोंका भी असीम उपकार किया है। प्रायः सभी ग्रन्थोंके अन्त में उन्होंने यह कामना की है कि जबतक यहाँ भरतक्षेत्रमें आर्य जन रहें तबतक ग्रन्थका पठन-पाठन होता रहे। मैं भी उनके इन्हों शब्दोंको दुहराता हुआ मंगल-कामना करता है कि जबतक संसारमें सूर्य-चन्द्र प्रकाश कर रहे हैं, तबतक उनके सभी ग्रन्थोंका पठन-पाठन कर भव्य जीव स्व-पर कल्याण करते रहें।
-हीरालाल सिद्धान्तशास्त्री
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