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प्रस्तावना
और उनकी कोई घटती या बढ़ती संख्या क्यों है ? श्वेताम्बर शास्त्रोंके अनुसार जिस-किसी भी तीर्थकरके समयमें जो भी विशिष्ट व्यक्ति दीक्षित होता था, उसके साथ दीक्षा लेनेवाले साधु-समुदायका वह गणधर बना दिया जाता था। वह गणधर कुछ काल तक तीर्थकरके समीप अपने शिष्य-परिवारके साथ ज्ञानार्जन और तपश्चरण करते हुए रहता था और योग्य हो जानेपर उन्हें स्वतन्त्र विहारकी अनुज्ञा दे दी जाती थी।
उपर्युक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि उक्त ११ गणधर अपने ४४०० शिष्योंके साथ एक ही दिन दीक्षित हुए।
यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा जहाँ ६६ दिनके पश्चात् इन्द्रके द्वारा लाये गये इन्द्रभूति गौतमके प्रवजित होनेपर भगवान महावीरको प्रथम देशना श्रावणकृष्णा प्रतिपदाके प्रातः सूर्योदयके समय मानती है, वहाँ श्वेताम्बर परम्परामें इस प्रकारका कोई उल्लेख नहीं है। इसके विपरीत वहाँ बताया गया है कि वैशाखशुक्ला दशमीके दिन भगवान्को केवलज्ञान प्राप्त होनेपर समवशरणको रचना हुई, फिर भी भगवान्ने कोई देशना नहीं दी, कारण कि गणधरपदके योग्य किसी विशिष्ट पुरुषका अभाव था।
भगवान् महावीरको केवलज्ञान प्राप्त होनेके कुछ समय पूर्वसे ही मध्यम पावापुरीमें सोमिल नामके ब्राह्मणने अपनी यज्ञशालामें एक बहुत बड़े यज्ञका आयोजन कर रखा था और उसमें उक्त इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह ही महापरुष अपने-अपने शिष्य-समदायके साथ सम्मिलित हए थे। जब केवलज्ञानको प्राप्ति जानकर देवगण भगवान्की वन्दनार्थ आकाशमार्गसे उतरते हुए आ रहे थे, तब इन्द्रभूति आदि यज्ञ करानेवाले विद्वानोंने यज्ञ में उपस्थित जन-समुदायको लक्ष्य करके कहा-देखो, हमारे मन्त्रोंके प्रभावसे देवगण भी यज्ञमें शामिल होकर अपना हव्य-अंश लेनेके लिए आ रहे है। पर जब उन्होंने देखा कि ये देवगण तो उनके यज्ञस्थलपर न आकर दूसरी ही ओर जा रहे हैं तब उन्हें वड़ा आश्चर्य हुआ। अनेक नगर-निवासियोंको भी जब उसी ओर जाते हुए देखा तो उनके आश्चर्यका ठिकाना न रहा और जाते हुए लोगोंसे पूछा कि तुम लोग कहाँ जा रहे हो ? लोगोंने बताया कि महावीर सर्वज्ञ तीर्थकर यहाँ आये हुए हैं, हम लोग उनका उपदेश सुननेके लिए जा रहे हैं । और हम ही क्या, ये देव लोग भी स्वर्गसे उतरकर उनका उपदेश सुननेके लिए जा रहे हैं । लोगोंका यह उत्तर सुनकर इन्द्रभूति गौतम विचारने लगे-क्या वेदार्थसे शून्य यह महावीर सर्वज्ञ हो सकता है ? जब मैं इतना बड़ा विद्वान् होनेपर भी आज तक सर्वज्ञ नहीं हो सका, तब यह वेदानभिज्ञ महावीर कैसे सर्वज्ञ हो सकता है ? चलकर इसकी परीक्षा करनी चाहिए और ऐसा सोचकर वे भी उसी ओर चल दिये जिस ओर कि नगर-निवासी जा रहे थे।
जब इन्द्रभूति गौतम समवशरणके समीप पहुँचे और उसकी अलौकिक शोभा देखी तो विस्मित होकर विचारने लगे-महावीर तो बड़ा इन्द्रजालिया ज्ञात होता है। अच्छा, यदि ये मेरे मनकी शंकाको जानकर उसका समाधान कर देंगे तो मैं उन्हें सर्वज्ञ मान लूंगा। यह सोचते हुए गौतम जैसे ही भगवान् महावीरके सामने पहुँचे, वैसे ही भगवान्ने कहा-अहो गौतम, तुम चिरकालसे आत्माके विषयमें शंकाशील हो ? भगवान् के द्वारा अपनेको नामोल्लेखपूर्वक सम्बोधित करते हुए हृदयस्थ शंकाकी बात सुनकर गौतम अतिविस्मित हुए। उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान्को नमस्कार करते हुए कहा-हाँ भगवन्, मुझे आत्माके विषयमें शंका है, क्योंकि
"विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञास्ति'
इस वेदवाक्यसे आत्माका अस्तित्व ज्ञात नहीं होता। तब भगवान्ने इसी वेदवाक्यसे, तथा 'द्रष्टव्योरेश्यमात्मा' आदि अन्य वेदवाक्योंसे विस्तारपूर्वक आत्माके अस्तित्वको सयुक्तिक सिद्धि की, जिसे सुनकर गौतमकी शंका दूर हो गयी और उनके हृदयके पट खुल गये । भगवान्की स्तुति करते हुए उन्होंने उसी समय अपने पाँच सौ शिष्योंके साथ भगवान्का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया और जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली। भगवानने उन्हें उनके शिष्य-परिवारका गणधर बनाया। इस प्रकार भगवानकी देशना प्रारम्भ हुई।
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