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१५४
श्री-वीरवर्धमानचरिते
[१५.८७
इत्यालोच्य हृदा धीमान् यष्टिकान्वितसत्करम् । वृद्धब्राह्मणवेषं स कृत्वा तन्निकटं ययौ ॥८॥ विद्यामदोद्धतं वीक्ष्य गौतमं प्रत्युवाच सः । विप्रोत्तमात्र विद्वांस्त्वं मस्काव्यकं विचारय ॥४॥ मद्गुरुश्रीवर्धमानाख्यो मौनालम्बो स विद्यते । ब्रूते मया समं नाहं काव्यार्थी विहागतः ॥४९॥ काव्यार्थो नात्र जायेताजीविका मम पुष्कला । उपकारश्च भव्यानां तव ख्यातिर्मविष्यति ॥९॥ तदाकर्ण्य द्विजः प्राह वृद्ध स्वत्काव्यमञ्जसा । यदि व्याख्याम्यहं सत्यं ततस्त्वं किं करिष्यसि ॥९॥ ततः शक्रो जगावित्थं विप्र स्वं यदि निश्चितम् । याथातथ्येन मस्काव्यं व्याख्यास्याशु ततः स्फुटम् ।।१२।। तव शिष्यो भवाम्येवं नो चेत्त्वं किं करिष्यसि । ततोऽवादीत्स रे वृद्ध शृणु मे निश्चितं वचः ॥१३॥ व्याख्यामि यद्यहं न त्वत्काव्यार्थ मझ्वहो स्फुटम् । तमुहं स्वद्गुरोः शिष्यो भविष्यामि न संशयः॥९॥ एतैः पञ्चशतैः शिष्यैः स्वभ्रातृभ्यां सह द्रुतम् । अधुनैव जगत्ख्यातस्त्यक्त्वा वेदादिजं मतम् ॥१५॥ अस्यां मम प्रतिज्ञायां साक्ष्येतत्पुरपालकः । काश्यपाख्यो द्विजोऽमी च साक्षिणो निखिला जनाः ॥१६॥ तच्छ्रुत्वा तेऽवदन् सर्वे क्वचिदैवाच्चलेदहो । मन्दरो नास्य सद्वाक्यं सन्मतेरिव चाहत: ॥१७॥ इत्यन्योन्यमहो वाचो जाते सति निबन्धने । तयोरिन्द्रस्ततो दिव्यगिरेदं काव्यमाह सः ॥९८॥ त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं सकलगतिगणाः सत्पदार्था नवैव
विश्वं पञ्चास्तिकाया व्रतसमितिचिदः सप्ततत्वानि धर्माः । आदिके गर्वसे युक्त उससे कुछ दुर्घट ( अति कठिन ) काव्यादिके अर्थको शीघ्र उस ब्राह्मणके आगे जाकर पूछु ? उस काव्यके अर्थको नहीं जाननेसे वह वाद (शास्त्रार्थ ) का इच्छुक होकर स्वयं ही यहाँपर आ जायेगा ।।८५-८६॥ हृदयमें ऐसा विचारकर वह बुद्धिमान सौधर्मेन्द्र लकड़ी हाथमें लिये हुए वृद्ध ब्राह्मणका वेष बना करके उस गौतमके निकट गया ॥८७॥ विद्याके मदसे उद्धत गौतमको देखकर उसने उनसे कहा-हे विप्रोत्तम, आप विद्वान् हैं, अतः मेरे इस एक काव्यका अर्थ विचार करें ॥८८॥ मेरे गुरु श्री वर्धमान स्वामी हैं, वे इस समय मौन धारण करके विराज रहे हैं और मेरे साथ नहीं बोल रहे हैं। अतः काव्यके अर्थको जाननेकी इच्छावाला होकर मैं आपके पास यहाँ आया हूँ ॥८९।। काव्यका अर्थ जान लेनेसे यहाँ मेरी बहुत अच्छी आजीविका हो जायेगी, भव्य जनोंका उपकार भी होगा और आपकी ख्याति भी होगी ॥१०॥
उसकी इस बातको सुनकर गौतम विप्र बोला-हे वृद्ध, यदि तेरे काव्यको मैं शीघ्र सत्य अर्थ-व्याख्या कर दूँ, तो तुम क्या करोगे ॥९१|| तब इन्द्रने यह कहा-हे विप्र, यदि तुम निश्चित यथार्थरूपसे शीघ्र मेरे काव्यकी स्पष्ट अर्थ-व्याख्या कर दोगे, तब मैं तुम्हारा शिष्य हो जाऊँगा। और यदि ठीक अर्थ-व्याख्या नहीं कर सके तो तुम क्या करोगे? यह सुनकरके गौतम बोला-रे वृद्ध, तू मेरे निश्चित वचन सुन-'यदि मैं तेरे काव्यके अर्थकी स्पष्ट व्याख्या न कर सकूँ, तो जगत्प्रसिद्ध मैं गौतम अपने इन पाँच सौ शिष्योंके तथा अपने इन दोनों भाइयोंके साथ शीघ्र ही वेदादिके मतको छोड़कर अभी तत्काल ही तेरे गुरुका शिष्य हो जाऊँगा; इसमें कोई संशय नहीं है ॥९२-९५।। मेरी इस प्रतिज्ञामें इस नगरका पालक यह काश्यप नामक द्विज साक्षी है और ये समस्त लोग भी साक्षी हैं ॥२६॥ गौतमकी यह बात सुनकर वे सब उपस्थित लोग बोले-अहो, क्वचित्-कदाचित् दैववश सुमेरु चल जावे, किन्तु इसके सद्वचन सन्मति अर्हन्तके समान कभी नहीं चल सकते हैं ॥९७। इस प्रकार उन दोनोंमें परस्पर प्रतिज्ञा-बद्ध वचनालाप होने पर उस इन्द्रने दिव्य वाणीसे यह काव्य कहा ।।९।।
"त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं सकलगतिगणाः सत्पदार्था नवैव, विश्वं पञ्चास्तिकाया व्रतसमितिचिदः सप्ततत्त्वानि धर्माः।
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