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१५.८६ ] पञ्चदशोऽधिकारः
१५३ नमो जगत्त्रयीनाथ स्वामिना स्यामिनेऽनिशम् । नमोऽतिशयपूर्णाय दिव्यदेहाय ते नमः ॥७२॥ नमो धर्मात्मने तुभ्यं नमः सद्धर्ममूर्तये । धर्मोपदेशदात्रे च धर्मचक्रप्रवर्तिने ॥७३॥ इति स्तुतिनमस्कारमक्त्यार्जितपुण्यतः । त्वत्प्रसादाज्जगन्नाथ सकला गुणराशयः ॥७॥ स्वदीया द्रुतमस्माकं सन्तु त्वत्पदसिद्धये । यान्तु कर्मारयो नाशं सन्मृत्याद्या मवन्तु च ॥७५॥ इति स्तुत्वा जगन्नाथं मुहुर्नत्वा चतुर्विधाः । कृत्वेष्टप्रार्थनां भक्त्या सामरा वासवास्तदा ।।७६॥ ते धर्मश्रवणाय स्वस्वकोष्ठेषु झुपाविशन् । जिनेन्द्रसन्मुखा भव्या देव्योऽपि च हिताप्तये ॥७॥ प्रस्तावेऽस्मिन् विलोक्याशु गणान् द्वादशसंख्यकान् । स्वस्वकोष्ठेषु चासीनान् सद्धर्मश्रवणोत्सुकान् ॥ यामवये गतेऽप्यस्याहतो न ध्वनिनिर्गमः । हेतुना केन जायेतादीन्द्रो हृदीत्यचिन्तयत् ॥७९॥ ततः स्वावधिना ज्ञात्वा गणेशाचरणाक्षमम् । मुनिवृन्दं पुनश्चेत्थं देवेन्द्रश्चिन्तयेत्सुधीः ॥८॥ अहो मध्ये मुनीशानां मुनीन्द्रः कोऽपि तादृशः। नास्ति योऽर्हन्मुखोद्भूतान् विश्वतत्वार्थसंचयान् ॥८॥ श्रुत्वा सकृस्करोत्यत्र द्वादशाङ्गश्रुतात्मनाम् । सम्पूर्णा रचनां शीघ्रं योग्यो गणभृतः पदे ॥८॥ विचिन्त्येत्यनविज्ञाय गौतमं विप्रमार्जितम् । गणेन्द्रपदयोग्यं च गोतमान्वयमूषणम् ॥८॥ केनोपायेन सोऽप्यत्रागमिष्यति द्विजोत्तमः । इति चिन्तां चकारोच्चैः सौधर्मेन्द्रः प्रसन्नधीः ॥८४॥ अहो एष मयोपायो ज्ञात आनयनं प्रति । विद्यादिगर्वितस्यास्य किंचित्पृच्छामि दुर्घटम् ॥४५॥ काव्यादिमबक्षु गत्वाहं पुरं ब्रह्माभिधं किल । तदज्ञानात्प्स वादार्थी स्वयमत्रागमिष्यति ॥८६॥
लिए हमारा नमस्कार है, हे महावीर, आपके लिए नमस्कार है ॥७१॥ हे जगत्त्रयी नाथ, आपके लिए नमस्कार है, हे स्वामियोंके स्वामिन , आपके लिए नमस्कार है, हे अतिशय सम्पन्न आपके लिए नमस्कार है, और हे दिव्य देहके धारक, आपके लिए हमारा नमस्कार है ॥७२।। हे धर्मात्मन् , आपके लिए नमस्कार है, हे सद्धर्ममर्ते, आपके लिए नमस्कार है, हे धर्मोपदेशदातः, आपके लिए नमस्कार है, और हे धर्मचक्रके प्रवर्तन करनेवाले भगवन् , आपके लिए हमारा नमस्कार है ॥७३॥ हे जगन्नाथ, इस प्रकार स्तुति करने, नमस्कार और भक्ति आदिके करनेसे उपार्जित पुण्यके द्वारा आपके प्रसादसे आपकी यह सकल गुणराशि आपके पदकी सिद्धिके लिए शीघ्र ही हमें प्राप्त हो, हमारे कर्मशत्रुओंका नाश हो और हमें समाधिमरण,बोधिलाभ आदिकी प्राप्ति हो ॥७४-७५।।।
इस प्रकार वे चतुर्निकायके इन्द्र अपने-अपने देवोंके साथ जगन्नाथ श्री वीरप्रभुकी स्तुति करके बार-बार नमस्कार करके और भक्तिके साथ इष्ट प्रार्थना करके धर्मोपदेश सुननेके लिए अपने-अपने कोठोंमें जिनेन्द्रकी ओर मुख करके जा बैठे तथा अन्य भव्य जीव और देवियाँ भी अपनी हितकी प्राप्तिके लिए इसी प्रकार अपने-अपने कोठोंमें जिनेन्द्रके सम्मुख जा बैठे ॥७६-७७। इसी अवसरमें सम्यक् धर्मको सुनने के लिए उत्सुक और अपने-अपने कोठोंमें बैठे हुए बारह गणोंको शीघ्र देखकर, तथा तीन प्रहरकाल बीत जानेपर भी इन अर्हन्तदेवकी दिव्यध्वनि किस कारणसे नहीं निकल रही है, इस प्रकारसे इन्द्रने अपने हृदयमें चिन्तवन किया ॥७८-७९|| तब अपने अवधिज्ञानसे बुद्धिमान इन्द्रने गणधरपदका आचरण करने में असमर्थ मनिवृन्दको जानकर इस प्रकार विचार किया ||८|| अहो, इन मुनीश्वरोंके मध्यमें ऐसा कोई भी मुनीन्द्र नहीं है, जो कि अर्हन्मुख कमल-विनिर्गत सर्व तत्त्वार्थसंचयको एक बार सुनकर द्वादशांग श्रुतकी सम्पूर्ण रचनाको शीघ्र कर सके और गणधरके पदके योग्य हो॥८१-८२।। ऐसा विचार कर गौतमगोत्रसे विभूषित गौतमविप्रको उत्तम एवं गणधर पदके योग्य जानकर किस उपायसे वह द्विजोत्तम गौतम यहाँपर आयेगा, इस प्रकार प्रसन्नबुद्धि सौधर्मेन्द्रने गम्भीरतापूर्वक चिन्तवन किया ॥८३-८४॥ कुछ देर तक चिन्तवन करनेके पश्चात् वह मन ही मन बोला-अहो, उसके लानेके लिए मैंने यह उपाय जान लिया है कि विद्या
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