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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १५२ श्री वीरवर्धमानचरिते [ १५.५८ ग्रन्थानां सुसग्रन्थो दृगादिरत्नसंग्रहात् । हन्तॄणां त्वं महाहन्ता कर्मारातिनिकन्दनात् ||५८|| तृणां त्वं महाजेता कषायाक्षारिनिर्जयात् । निरीहस्त्वं स्वकायादौ विश्वाग्रश्रीस मीहकः ॥ ५९ ॥ देवीनिकरमध्यस्थो ब्रह्मचारी परोऽसि च । एववक्त्रोऽपि देवस्त्वं चतुर्वक्त्रो विलोक्यते ॥ ६०॥ श्रिया विश्वातिशायिन्याऽलंकृतस्त्वं जगद्गुरो । महानिर्ग्रन्थराडनाद्वितीयोऽसि गणाग्रणीः ॥ ६१ ॥ अद्य देव वयं धन्याः सफलं नोऽय जीवितम् । कृतार्थाश्चरणा अद्य स्वद्यात्रागमनाद्विमो ॥ ६२ ॥ अद्य नः सफला हस्तास्तवेशार्चनतो गुरो । सफलान्यद्य नेत्राणि त्वत्पादाम्बुजवीक्षणात् ॥ ६३।। सार्थकानि शिरांस्यद्य त्वत्क्रमाब्जप्रणामतः । पवित्राण्यद्य गात्राणि नो भवत्पादसेवनात् ॥६४॥ सफला अद्य नो वाण्यो देव ते गुणभाषणात् । मनांसि निर्मलान्यद्य नाथ ते गुणचिन्तनात् ॥ ६५ ॥ देव ते या महत्योऽत्र ह्यनन्ता गुणराशयः । अशक्याः स्तोतुमत्यर्थ गौतमादिगणेशिनम् ॥ ६६ ॥ स्तुत्यास्ताः कथमस्माभिः परमा गुणखानयः । मवेति स्वरस्तुतौ नाथ न कृतः श्रम ऊर्जितः ॥६७॥ अतो देव नमस्तुभ्यं नमोऽनन्तगुणात्मने । नमो विश्वाग्रभूताय नमस्ते गुरवे सताम् ॥ ६८ ॥ नमः परात्मने तुभ्यं नमो लोकोत्तमाय ते । केवलज्ञानसाम्राज्यभूषिताय नमोऽस्तु ते ॥ ६९ ॥ अनन्तदर्शिने तुभ्यं नमोऽनन्तसुखात्मने । नमस्तेऽनन्तवीर्याय मित्राय त्रिजगत्सताम् ॥७०॥ नमः श्रीवर्धमानाय विश्वमांगल्यकारिणे । नमः सन्मतये तुभ्यं महावीराय ते नमः ॥ ७१ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संगमका चिन्तन करते हैं ॥ ५७॥ सग्रन्थों ( परिग्रहीजनों ) में आप महासप्रन्थ हैं, क्योंकि आपने सम्यग्दर्शनादि रत्नोंका संग्रह किया है । घातकजनोंमें आप महाघातक हैं, क्योंकि आपने कर्मरूपी महाशत्रुओंका घात किया है ||५८ || विजेताजनों में आप महाविजेता हैं, क्योंकि आपने कषाय और इन्द्रियरूपी शत्रुओंको जीत लिया है। अपने शरीर | दिमें इच्छारहित हो करके भी आप विश्व के अग्रभागपर स्थित मुक्तिलक्ष्मीके वांछक हैं ॥५९॥ चतुर्निकायवाली देवियोंके समूहके मध्य में स्थित हो करके भी आप परम ब्रह्मचारी हैं तथा एक मुखवाले हो करके भी आप चार मुखवाले दिखाई देते हैं ||६०|| हे जगद्गुरो, आप विश्वातिशायिनी लक्ष्मीसे अलंकृत हैं, आप महान् निर्ग्रन्थराज हैं, आपके समान संसार में कोई दूसरा नहीं है। और आप गणके अग्रणी हैं ॥। ६१|| हे देव, आज हम लोग धन्य हैं, आज हमारा जीवन सफल हुआ है, और हे प्रभो, आज आपके दर्शनार्थ यात्रामें आनेसे हमारे चरण कृतार्थ हो गये हैं ||६२|| हे गुरो, आपका पूजन करनेसे आज हमारे हाथ सफल हो गये हैं और आपके चरणकमलोंको देखनेसे हमारे नेत्र भी सफल हुए हैं ||६३ || आपके चरण-कमलोंको प्रणाम करने से हमारे ये शिर सार्थक हो गये हैं और आपके चरणोंकी सेवासे हमारे ये शरीर आज पवित्र हुए हैं ||६४ || हे देव, आपके गुणोंको कहनेसे हमारी वाणी आज सफल हुई है और हे नाथ, आपके गुणोंका चिन्तवन करने से हमारे मन आज निर्मल हो गये हैं ||६५ || हे देव, आपकी जो अनन्त महागुणराशि है, उसकी सम्यक प्रकारसे स्तुति करनेके लिए गौतमादि गणधर देव भी अशक्य हैं, तब हम जैसे अल्पज्ञानियोंके द्वारा आपकी परम गुणराशि कैसे स्तवनीय हो सकती है। ऐसा समझकर हे नाथ, आपकी स्तुतिमें हमने अधिक श्रम नहीं किया है ||६६-६७।। इसलिए हे देव, आपको नमस्कार है, अनन्त गुणशाली, आपको नमस्कार है, विश्वके शिरोमणि, आपके लिए नमस्कार है और सन्तजनोंके गुरु, आपके लिए हमारा नमस्कार है ॥६८॥ हे परमात्मन, आपके लिए नमस्कार है, हे लोकोत्तम, आपके लिए नमस्कार है, हे केवलज्ञान साम्राज्य से विभूषित भगवन्, आपके लिए हमारा नमस्कार है || ६२९|| हे अनन्तदर्शिन्, आपके लिए नमस्कार है, है अनन्त सुखात्मन्, आपके लिए नमस्कार है, है अनन्तवीर्यशालिन्, आपके लिए नमस्कार है, और तीन लोकके सन्तोंके मित्र आपके लिए हमारा नमस्कार है || ७०|| संसारका मंगल करनेवाले श्री वर्धमान स्वामीके लिए नमस्कार है, हे सन्मते आपके For Private And Personal Use Only
SR No.020901
Book TitleVir Vardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSakalkirti, Hiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1974
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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