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१५.५७ ] पञ्चदशोऽधिकारः
१५१ स्फुरद्रत्नमयैःपैर्विश्वोद्योतनकारणैः । तेऽद्योतयन् जगन्नाथक्रमाब्जौ स्वश्विदाप्तये ॥४॥ कालोगुर्वादिसद्-द्रव्यजातेधूमोत्करैर्वरैः । ततामोदैजिनाथ्री तेऽधूपयन् धर्मसिद्धये ॥४५॥ कल्पशाखिभर्नानाफलैनेत्रप्रियवरैः । तेऽपूजयन् जिनेन्द्राधी महाफलप्रसिद्धये ॥४६॥ पूजान्ते ते सुराधीशाः कुसुमाञ्जलिकोटिमिः । पुष्पवृष्टिं मुदा चक्रुः परितस्तं जगद्गुरुम् ॥४७॥ पञ्चरत्नोद्भवैश्चूर्णैर्विचित्रं बलिमूर्जितम् । स्वहस्तेनालिखद्भक्त्या विभोरग्रे शची तदा ॥४॥ ततः प्रणम्य तीर्थेशं तुष्टास्ते देवनायकाः । ईषन्नम्रा महाभक्त्या स्वहस्तकुड्मलीकृताः ॥४९॥ दिव्यवाचा जिनेन्द्रस्य गुणैरन्तातिगैः परैः । आरेमिरे स्तुति कर्तुमित्थं तद्गुणहेतवे ॥५०॥ त्वं देव जगतां नाथो गुरूणां त्वं महागुरुः । पूज्यानां त्वं महापूज्यो वन्यस्त्वं वन्द्यनाकिनाम् ॥५१॥ योगिनां त्वं महायोगी वतिनां त्वं महाव्रती । ध्यानिनां त्वं महाध्यानी धीमतां त्वं महासुधीः ॥५२॥ ज्ञानिनां त्वं महाज्ञानी यतीनां त्वं जितेन्द्रियः । स्वामिनां त्वं परः स्वामी जिनानां त्वं जिनोत्तमः ॥५३ ध्येयानां त्वं सदा ध्येयः स्तुत्यः स्तुत्यात्मनां विभो । दातृणां त्वं महादाता गुणिनां त्वं महागुणी ॥५॥ धर्मिणां त्वं परो धर्मी हितानां त्वं परो हितः । त्राता त्वं भवभीरूणां हन्ता त्वं स्वान्यकर्मणाम् ॥५५॥ शरण्यो निःशरण्यानां सार्थवाहः शिवाध्वनि । निःकारणमहाबन्धुरबन्धूनां त्वं जगद्धितः ॥६॥ लोभिनां त्वं महालोभी विश्वाग्रराज्यकाक्षणात् । रागिणां त्वं महारागी मुक्तिस्त्रीसङ्गचिन्तनात् ॥५७॥
पिण्डमयी नैवेद्यको अपने सुखकी प्राप्ति के लिए भक्तिके साथ प्रभुके चरण-कमलोंमें चढ़ाया ॥४३।। पुनः स्फुरायमान रत्नमयी, विश्वके प्रकाश करने में कारणभूत दीपोंके द्वारा अपने चैतन्यस्वरूपकी प्राप्तिके लिए उन इन्द्रोंने जगत्के नाथ वीरजिनेन्द्र के चरण-कमलोंको प्रकाशित किया ॥४४॥ तत्पश्चात् उन इन्द्रोंने कालागुरु आदि उत्तम द्रव्योंसे निर्मित, सुगन्धित श्रेष्ठ धूप-समूहसे जिनदेवके चरण-कमलोंको धूपित किया ॥४५।। तदनन्तर कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए, नेत्र-प्रिय, श्रेष्ठ अनेक महाफलोंसे उन्होंने मुक्तिरूप महाफलकी सिद्धिके लिए जिनेन्द्रके चरण-कमलोंकी पूजा की ॥४६॥ इस प्रकार अष्टद्रव्योंसे पूजा करनेके अन्तमें उन इन्द्रोंने कोटि-कोटि कुसुमांजलियोंसे जगद्-गुरुके सर्व ओर हर्षित होकर पुष्पवृष्टि की ॥४७॥ तत्पश्चात् इन्द्राणीने प्रभुके आगे पाँच जातिके रत्नोंके चूर्णों द्वारा अपने हाथसे भक्तिके साथ अनेक प्रकारके उत्तम सांथिया आदिको लिखा ॥४८॥ तदनन्तर पूजा करनेसे अति सन्तुष्ट हुए उन देवोंके नायक इन्द्रोंने कुछ नम्रीभूत होकर महाभक्तिसे अपने हाथोंको जोड़कर तीर्थंकर प्रभुको नमस्कार कर दिव्य वचनोंसे जिनेन्द्रदेवके अन्त-रहित (अनन्त ) गुणोंके द्वारा उन गुणोंकी प्राप्तिके लिए इस प्रकार स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥४९-५०॥
हे देव, तुम सारे जगत्के नाथ हो, तुम गुरुजनोंके महागुरु हो, पूज्योंके महापूज्य हो, वन्दनीय देवेन्द्रोंके भी तुम वन्दनीय हो, ॥५१॥ तुम योगियोंमें महायोगी हो, व्रतियोंमें महाव्रती हो, ध्यानियोंमें महाध्यानी हो, और बुद्धिमानोंमें तुम महाबुद्धिमान हो ॥५२॥ ज्ञानियों में तुम महाज्ञानी हो, यतियोंमें तुम जितेन्द्रिय हो, स्वामियोंके तुम परम स्वामी हो और जिनोंमें तुम उत्तम जिन हो ॥५३।।।
ध्यान करने योग्य पुरुषोंके तुम सदा ध्येय हो, स्तुति करने योग्य पुरुषोंके तुम स्तुत्य हो, दाताओंमें तुम महादाता हो और हे प्रभो, गुणीजनोंमें तुम महागुणी हो ॥५४॥ धर्मीजनोंमें तुम परमधर्मी हो, हितकारकोंमें तुम महान् हितकारक हो, भव-भीरुजनोंके तुम त्राता ( रक्षक ) हो और अपने तथा अन्य जीवोंके कर्मों के नाश करनेवाले हो ॥५५।। अशरणोंको आप शरण देनेवाले हैं, शिवमार्गमें सार्थवाह हैं, अबन्धुओंके आप अकारण बन्धु हैं और जगत्के हितकर्ता हैं ॥५६॥ लोभीजनोंमें आप महालोभी हैं, क्योंकि विश्वके अग्रभागपर स्थित मुक्तिसाम्राज्यकी आकांक्षासे युक्त हैं । रागियोंमें आप महारागी हैं, क्योंकि मुक्ति स्त्रीके
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