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श्री वीरवर्धमानचरिते
[ १५.२९
त्रिः परीत्य जिनास्थानमण्डलं शरणं सताम् । प्रविशन् परया भक्त्या दृष्टुकामा जगद्गुरुम् ॥२९॥ मानस्तम्भमहाचैत्यद्रुमस्तूपेषु संस्थितान् । जिनेन्द्रसिद्ध बिम्बोधान् पूजयन्तो महार्चनैः ॥३०॥ लोकयन्तो निरोपम्यां दिव्यां तद्रचनां पराम् । देवैः कृतां क्रमाच्छक्रास्तत्समां विविशुर्मुदा ॥ ३१ ॥ तत्रोत्तुङ्गपदारूढं तुङ्गसिंहासनाश्रितम् । तुङ्गकायं महातुङ्गमुत्तुङ्गैर्गुणकोटिभिः ॥३२॥ चतुर्वक्त्रं महावीरं वीज्यमानं प्रकीर्णकम् । ददृशुः परया भूत्वा शक्राः विस्फारितेक्षणाः ॥३३॥ ततस्तं त्रिः परीत्योच्चैर्भक्तिमारवशीकृताः । भक्त्या विन्यस्य भूभागे स्वजानून् कर्महानये ॥ ३४ ॥ भुवनत्रय संसेव्यौ जिनेन्द्रस्य पदाम्बुजौ । नाकिनाथा स्फुरन्मूर्ध्ना प्रणेमुर्निर्जरैः समम् ॥३५॥ शच्याद्याः सकला देव्यः स्वाप्सरोभिः समं मुदा । पञ्चाङ्गं सत्प्रणामं त्रिजगन्नाथाय चक्रिरे ॥ ३६ ॥ तत्प्रणामे सुरेन्द्राणां रत्नशेखररश्मिभिः । विचित्रिताविवामातां जिनेन्द्र चरणाम्बुजौ ॥३७॥ अकृच्छायामरराधीशास्तद्गुणग्रामरञ्जिताः । परया दिव्यसामग्र्या तत्पूजां कर्तुमुद्ययुः ॥ ३८ ॥ कनत्काञ्चनभृङ्गारनालेभ्यः स्वच्छत्रारिजाः । धाराः स्वाघविशुद्धयै ते तत्क्रमाग्रे न्यपातयन् ॥३९॥ तथाचयन् महाभक्त्या दिव्यगन्धैर्विलेपनैः । इन्द्रा भगवतो रम्यं पीठानं भुक्तिमुक्तये ॥ ४० ॥ मुक्ताफलमयैर्दिव्यैरक्षतैः श्वेतिताम्बरैः । व्यधुः पञ्चोन्नतान् पुआंस्तदग्रेऽक्षयशर्मणे ॥४१॥ दिव्यैः कल्पद्रुमोद्भूतैः पुष्पमालादिकोटिभिः । चक्रुस्ते महतीं पूजां विभोः सर्वार्थसाधिनीम् ॥ ४३ ॥ सुधापिण्डजनैवेद्यान् रत्नथालार्पितान् सुराः । प्रभोः पादाम्बुजे भक्त्याssढौकयन् स्वसुखाप्तये ॥ ४३ ॥
अपने देव-परिवार के साथ मस्तकपर कर-कमलोंको रखे और जय-जय आदि घोषणा करते हुए समवशरण में प्रविष्ट हुए । उन्होंने सज्जनोंको शरण देनेवाले उस समवशरण मण्डलकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं । पुनः जगद् गुरु श्री वीरजिनेन्द्रके दर्शनोंके इच्छुक उन देवेन्द्रादिकोंने परम भक्ति के साथ मानस्तम्भ, महाचैत्यवृक्ष और स्तूपोंमें विराजमान जिनेन्द्र और सिद्ध भगवन्तोंके विम्ब-समूहकी महान् द्रव्योंसे पूजा की । पुनः समवशरणकी देवों द्वारा रचित अनुपम दिव्य रचनाको देखते हुए वे हर्ष के साथ उस सभा में प्रविष्ट हुए ||२८-३१ । वहाँपर उत्तुंग स्थान पर रखे हुए उन्नत सिंहासनपर विराजमान, अति उत्तम कोटि-कोटि गुणोंसे उत्तुंग कायवाले, चार मुखोंके धारक, चामरोंसे वीज्यमान महावीर भगवान्को विस्फारित नेवाले इन्द्रादिकोंने परम विभूतिके साथ देखा || ३२-३३|| तब भक्तिभारसे नम्रीभूत होकर उन सबने अति भक्ति के साथ भगवान्की तीन प्रदक्षिणाएँ देकर भूमि भागपर अपनी जानुओं ( घुटनों ) को रखकर कर्मोंके नाश करनेके लिए तीन लोकके जीवोंसे सेवित जिनेन्द्रदेव के चरण कमलोंको इन्द्रोंने समस्त देवोंके साथ मस्तकसे नमस्कार किया || ३४-३५ || शची आदि सभी देवियोंने अपनी-अपनी अप्सराओंके साथ त्रिजगदीश्वरको अति हर्पसे पंचांग नमस्कार किया ||३६|| उनके नमस्कार करते समय इन्द्रोंके रत्नमयी मुकुटोंकी किरणोंसे चित्र-विचित्र शोभाको धारण करते हुए जिनेन्द्रदेव के चरण-कमल अत्यन्त शोभायमान हो रहे थे ||३७|| जिनके शरीर की छाया नहीं पड़ती है, ऐसे वे देवोंके स्वामी इन्द्रादिक भगवान्के गुण- ग्रामसे अनुरंजित होकर उत्कृष्ट दिव्य सामग्रीके द्वारा वीरजिनेन्द्रकी पूजा करने के लिए उद्यत हुए ||३८|| उन्होंने चमकते हुए सुवर्ण-निर्मित शृंगार नालोंसे स्वच्छ जलकी धारा अपने पापों की विशुद्धि के लिए भगवान् के चरणोंके आगे छोड़ी ||३९|| पुनः महाभक्ति से उन इन्द्र भुक्ति और मुक्तिकी प्राप्तिके लिए भगवान् के रमणीक पीठके आगे दिव्य गन्धविलेपन से पूजा की ||४०|| पुनः अपनी स्वच्छतासे आकाशको धवल करनेवाले मुक्ताफलमयी दिव्य अक्षतोंसे उन्होंने अक्षय सुख पानेके लिए भगवान्के आगे पाँच उन्नत पुंज बनाये ॥४१॥ पुनः कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए दिव्य कोटि-कोटि पुष्पमालादिसे सर्व अर्थोंको सिद्ध करनेवाली भगवान्की महापूजा की ||४२ || पुनः उन देवोंने रत्नोंके थालोंमें रखे हुए अमृत
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