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१५.१११]
पञ्चदशोऽधिकारः
१५५
सिद्धार्गः स्वरूपं विधिजनितफलं जीवषटकायलेश्या
एतान् यः श्रद्दधाति जिनवचनरतो मुक्तिगामी स भव्यः ॥१९॥ तदाकयेष साश्चर्यस्तदर्थ ज्ञातुमक्षमः। मानभङ्गभयादित्थं मानसे हि वितर्कयेत् ॥१०॥ भोरिदं दुर्घटं काव्यं नास्यार्थो ज्ञायते मनाक् । त्रैकाल्नं किं भवेदन दिनोस्थं वाब्दसंभवम् ॥१०॥ अथ कालत्रयोत्पन्नं यत्तजानाति सर्ववित् । वा यस्तदागमज्ञः स नान्यो मादृग्जनः क्वचित् ॥१.२॥ षडद्वव्याः केऽत्र कथ्यन्ते कस्मिन् शास्त्रे निरूपिताः । सकला गतयः का मोस्तासां किं लक्षणं भुवि ॥१०३ ये पदार्था न श्रुताः पूर्वमेतान् को ज्ञातुमर्हति । विश्वं किं कथ्यते सर्व त्रैलोक्यं वा न वेद्मयहम् ॥१०॥ केऽत्र पञ्चास्तिकाया हि व्रतानि कानि भूतले । का भोः समितयो ज्ञान केनोक्तं तस्य किं फलम् ॥१०५॥ कानि सप्तैव तत्त्वानि के धर्मा वात्र कीदृशाः । सिद्धेश्व कार्यनिष्पत्तेर्वात्र मार्गोऽप्यनेकधा ॥१०६॥ . किं स्वरूपं विधिः कोऽत्र किं तस्य जनितं फलम् । के षड्जीवनिकायाः काः षड्लेश्या न श्रुताः क्वचित् ॥ एतेषां लक्षणं जातु न श्रुतं प्राग्मया मनाक् । नास्मच्छास्त्रेषु वेदे वा स्मृत्यादिषु निरूपितम् ।।१०८॥ अहो मन्येऽहमत्रैवं सर्व सिद्धान्तवारिधेः । रहस्यं दुर्घटं यत्तत्सर्वं पृच्छति मामयम् ॥१०९॥ मन्यते मन्मनोऽत्रेदं काव्यं गूढं विनोर्जितम् । सर्वज्ञं वा हि तच्छिष्यं व्याख्यातुं कोऽपि न क्षमः ॥१०॥ अधुना यद्यनेनामा विवादं वितनोम्यहम् । ततो मे मानभङ्गः स्यात्सामान्यद्विजवादतः ।।१११॥
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सिद्धेर्मार्गः स्वरूपं विधिजनितफलं जीवषट्कायलेश्या
एतान् यः श्रद्दधाति जिनवचनरतो मुक्तिगामी स भव्यः ॥९९।।" इस काव्यको सुनकर आश्चर्ययुक्त हो और उसके अर्थको जानने में असमर्थ होकर वह गौतम मान-भंगके भयसे मन में इस प्रकार विचारने लगा ॥१०॥ अहो. यह का व्य बहुत कठिन है, इसका जरा-सा भी अर्थ ज्ञात नहीं होता है। इस काव्यमें सर्वप्रथम जो 'काल्यं' पद है, सो उससे दिनमें होनेवाले तीन काल अभीष्ट हैं, अथवा वर्ष सम्बन्धी तीन काल अभीष्ट हैं ? ॥१०१॥ यदि भूत, भविष्यत् और वर्तमान सम्बन्धी तीन काल अभीष्ट हैं, तो जो इन तीनों कालोंमें उत्पन्न हुई वस्तुओंको जानता है, वही सर्वज्ञ है और वही उसके आगमका ज्ञाता हो सकता है, मुझ सरीखा कोई जन कभी उसका ज्ञाता नहीं हो सकता ॥१०२।। काव्यमें जो षड्द्रव्योंका उल्लेख है, सो वे छह द्रव्य कौनसे कहे जाते हैं, और वे किस शास्त्रमें निरूपण किये गये हैं ? समस्त गतियाँ कौन-सी हैं, और उनका क्या लक्षण है ? संसारमें अरे, जिन नौ पदार्थों का नाम भी नहीं सुना है, उन्हें जानने के लिए कौन योग्य हैं ? विश्व किसे कहते हैं, सबको या तीन लोकको, यह भी मैं नहीं जानता हूँ ।।१०३-१०४|| इस काव्यमें पठित पाँच अस्तिकाय कौन-से हैं, इस भूतलमें कौन-से पाँच व्रत हैं, और कौन-सी पाँच समितियाँ हैं ? ज्ञान किसके द्वारा कहा गया है और उसका क्या फल है ।।१०५।। सात तत्त्व कौन-से हैं, दश धर्म कौन-से हैं, और उनका कैसा स्वरूप है ? सिद्धि और कार्य-निष्पत्तिका मार्ग भी संसारमें अनेक प्रकारका है ॥१०६।। विधिका क्या स्वरूप है और उसका क्या फल उत्पन्न होता है ? छह जीवनिकाय कौन-से हैं ? छह लेश्याएँ तो कभी कहीं पर सुनी भी नहीं हैं ॥१०७।। काव्योक्त इन सबका लक्षण मैंने पहले कभी जरा-सा भी नहीं सना है और न हमार वेदमें, शास्त्रोंमें अथवा स्मृति आदिमें इनका कुछ निरूपण ही किया गया है ॥१०८।। अहो, मैं समझता है कि इस काव्यमें सिद्धान्तसमद्रका सारा कठिन रहस्य भरा हआ है. और उसे ही यह बुड्डा ब्राह्मण मुझसे पूछ रहा है ॥१०९|| मेरा मन यह मानता है कि यह काव्य गूढ़ अर्थवाला है, उसे सर्वज्ञके अथवा उनके उत्तमज्ञानी शिष्यके बिना अन्य कोई भी मनुष्य अर्थ-व्याख्यान करनेके लिए समर्थ नहीं है ।।११०॥ अब यदि मैं इसके साथ विवाद करता हूँ तो साधारण ब्राह्मणके साथ बात करनेसे मेरा मान भंग होगा?
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