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श्री-वीरवर्धमानचरिते स्वाङ्गोपरितलेऽन्तर्बहिर्लग्नमौक्तिकादिभिः । नारासंततिशङ्कां स दधच्छीमान् मनोहरः ॥११॥ क्वचिद्विद्रमकान्त्यादयः क्वचिन्नवधनच्छविः । क्वचिच्च सुरगोपाभ इन्द्रनीलच्छविः क्वचित् ॥१२॥ कचिद्विचित्ररत्नांशुरचितेन्द्रधनुर्महान् । विद्युदा पिञ्जरोऽनेकवर्णाशुभिर्ब मौ तराम् ॥१३॥ स हसन्निव द्विपव्याघ्रसिंहहंसादिदेहिनाम् । वल्लीनां नृमयूराणां युग्मरूपैश्चितोऽखिलः ॥१४॥ महान्ति गोपुराण्यस्य शोभन्ते दिक्चतुष्टये । राजितानि त्रिभूमानि प्रहसन्तीव तेजसा ॥१५॥ पद्मरागमयैस्तुङ्गः शिखरैव्योमलजिभिः । शृङ्गाणीव महामेरोर्गोपुराणि बभुस्तराम् ॥१६॥ तीर्थेशस्य गुणानेषु गायन्ति देवगायनाः । केचिच्छृण्वन्ति नृत्यन्ति कंचिदाराधयन्ति च ।।९७।। भृङ्गारकलशाब्दाद्या मङ्गलद्रव्यभूतयः । प्रत्येक गोपुरेष्वासन्नष्टोत्तरशतप्रमाः ॥१८॥ रत्नाभरणनानाभाविचित्रीकृतखाङ्गणाः । प्रत्येक तोरणास्तेषु शतसंख्या विमान्त्यही ।।९९॥ निसर्गमास्वरे काये विनोः स्वानवकाशताम् । मत्वेवाभरणान्यस्थुर्निरुध्य तोरणानि भोः ॥१०॥ द्वारोपान्तेषु राजन्ते शखाद्या निधयो नव । वैराग्येण जिनेन्द्रेण तिष्ठन्तीवावधीरिताः ॥१०॥ तेषामन्तर्महावोथ्या द्वयोः सत्पाश्र्चयोर्भवेत् । प्रत्येकं च चतुर्दिक्षु नाट्यशालाद्वयं महत् ॥१०२॥ तिसृभिर्भूमिभिस्तुङ्गौ भातस्तो नाट्यमण्डपौ । मुक्तस्त्रिधात्मक मार्ग सतां वक्तुमिवोद्यतौ ।।१०३॥
हिरण्मयवृहत्स्तम्भौ शुद्धस्फाटिकभित्तिको । तेषु मण्डपरङ्गेषु नृत्यन्ति स्माप्सरोवराः ॥१०४॥ प्राकार था ॥९०।। उस प्राकारके ऊपर, नीचे और मध्यभागमें मोती लगे हुए थे, जिनके द्वारा शोभायुक्त वह मनोहर प्राकार ताराओंकी परम्पराकी शंकाको धारण कर रहा था ।।९।। वह प्राकार कहींपर विद्रमकी कान्तिसे यक्त था, कहींपर नवीन मेघकी छविको धारण कर रहा था, कहींपर इन्द्रगोप जैसी लाल शोभासे युक्त था और कहींपर इन्द्रनीलमणिकी नीली कान्तिको धारण कर रहा था ।।९२।। कहीं पर नाना प्रकारके रत्नोंकी किरणोंसे महान इन्द्रधनुषकी शोभाको विस्तार रहा था और कहींपर अनेक वर्णवाले रत्नोंकी किरणोंसे युक्त होकर बिजलीकी शोभा दिखा रहा था ।।२३।। वह समस्त प्राकार हाथी, व्याघ्र, सिंह, हंस आदि प्राणियों, मनुष्यों और मयूरोंके जोड़ोंसे, तथा वेलोंके समूहोंसे हँसते हुएके समान शोभायमान था ॥९४।। इस प्राकारकी चारों दिशाओंमें तीन भूमियों ( खण्डों) वाले विशाल रजतमयी चार गोपुर शोभित थे, जो अपने तेजसे हँसते हुएके समान प्रतीत हो रहे थे ।।९५।। वे गोपुर पद्मरागमयी, ऊँचे आकाशको उल्लंघन करनेवाले शिखरोंसे ऐसे शोभित हो रहे थे मानो महामेरुके उन्नत शिखर ही हों ।।१६।।उन शिखरोंपर कितने ही गन्धर्व देव तीर्थश्वरके गुणोंको गा रहे थे, कितने ही उन गुणोंको सुन रहे थे, कितने ही नृत्य कर रहे थे और कितने ही तीर्थंकर देवकी आराधना कर रहे थे ॥९७। प्रत्येक गोपुरपर भृङ्गार, कला, दर्पण आदि आठों जातिके मंगलद्रव्य एक सौ आठ-एक सौ आठकी संख्यामें विराजमान थे ।।९८।। प्रत्येक गोपुर द्वारपर नाना प्रकारके रत्नोंकी कान्तिसे गगनांगणको चित्र-विचित्र करनेवाले सौ-सौ तोरण शोभायमान हो रहे थे ॥९९॥ उन तोरणोंमें लगे हुए आभूषण ऐसे प्रतीत होते थे, मानो स्वभावसे ही प्रकाशमान प्रभुके शरीरमें रहने के लिए अवकाशको न पाकर वे अब तोरणोंको व्याप्त करके अवस्थित हैं ॥१००। उन द्वारोंके समीप रखी हुई शंख आदि नवों निधियाँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो जिनेन्द्रदेवके द्वारा वैराग्यसे तिरस्कृत होकर द्वारपर ही ठहरकर भगवानकी सेवा कर रही हैं ॥१०१। इन गोपुर द्वारोंके भीतर एक-एक महावीथी थी, जिसके दोनों पार्श्वभागोंमें दो-दो नाट्यशालाएँ थीं। इस प्रकार चारों दिशाओंमें दोदो महानाट्यशालाएँ थीं ।।१०२॥ तीन भ मियों ( खण्डों) से युक्त, ऊँचे वे नाट्यमण्डप ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो सज्जनोंको मुक्तिका रत्नत्रयस्वरूप त्रिधात्मक मार्ग कहनेके लिए उद्यत है ।।१०३।। उन नाट्यमण्डपोंके विशाल स्तम्भ सुवर्णमयी थे, उनकी भित्तियाँ निर्मल
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