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१४.११८ ]
चतुर्दशोऽधिकारः
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बीणया सह गायन्ति काश्चिच्च विजयं विभोः । दिव्यकण्ठाश्वगन्धर्वाः कैवल्यादिभवान् गुणान् ॥१०५ ततो धूप द्वौ द्वौ वीथीन 'मुभयोर्दिशोः । धूपधूमैस्ततामोदैः सुगन्धीकृतखाङ्गणौ ॥ १०६ ॥ तत्र वीथ्यन्तरेष्वासंश्चतस्त्रो वनवीथयः । सर्वतु फलपुष्पाढ्या नन्दनाद्या इवापराः ॥ १०७ ॥ अशोकसप्तपर्णाख्यचम्पकाश्रमहीरुहाम् । वनानि तानि भान्स्युच्चैरुत्तुङ्गः पादपत्रजैः ॥ १०८ ॥ वनानां मध्यभागेषु क्वचिद्वाप्यो लसज्जलाः । त्रिकोण्यश्च चतुष्कोणाः पुष्करिण्यः क्वचित्पराः ॥ १०९॥ क्वचिद्वर्म्याणि रम्याणि क्वचिदाक्रीडमण्डाः । कचित्प्रेक्षालयास्तुङ्गाश्चित्रशालाः क्वचिच्छुभाः ॥ ११०॥ एकशाला द्विशालाद्या दोप्राः प्रासादपङ्क्तयः । क्वचित्क्रीडाप्रदेशाः स्युः क्वचिच्च कृतकाद्वयः ॥ १११ ॥ अशोकवनमध्ये स्यादशोकश्चैव्यपादपः । पीठं त्रिमेखलं हैमं रम्यं तुङ्गमधिष्ठितः ॥ ११२ ॥ चतुर्गोपुर संबद्धविशालपरिवेष्टितः । त्रयछत्राङ्कित मूर्ध्नि रणदुष्टोऽतिसुन्दरः ॥ ११३ ॥ ध्वजचामरमाङ्गल्यद्रव्यश्रीप्रतिमादिभिः । माति देवार्चनैः सोऽन जम्बूवृक्ष इवोन्नतः ॥ ११४ ॥ चतुर्दिवस्य या सन्ति दीप्राः श्रीजिन मूर्तयः । ताः सुरेन्द्राः स्वपुण्याय पूजयन्ति महार्चनैः ॥११५॥ एवं शेषवनेषु स्युश्चैश्यवृक्षाः सुरार्चिताः । सप्तपर्णादयो रम्याश्छत्रार्हस्प्रतिमादिभिः ॥ ११६॥ माला शुकमयूराब्जहंसानां गरुडात्मनाम् । मृगेश वृषभेभेन्द्रचक्राणां दिव्यरूपिणाम् ॥ ११७ ॥ दशभेदा ध्वजास्तुङ्गाः स्युर्मोहारि जयार्जिताः । प्रभोखिजगदैश्वर्य मेकीकर्तुमिवोद्यताः ॥ ११८ ॥
स्फटिक मणिमयी थीं। उन मण्डपोंके भीतर उत्तम अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं ॥ १०४ ॥ कितनी ही देवियाँ वीणा के साथ प्रभुके विजयका गान कर रही थीं और कितने ही दिव्य कण्ठवाले गन्धर्व भगवान् के कैवल्यप्राप्तिसे उत्पन्न हुए गुणोंको गा रहे थे ॥१०५॥ उन वीथियोंकी दोनों दिशाओंमें दो-दो धूपघट थे, जिनके धूपकी सुगन्धीको विस्तारनेवाले धुएँके द्वारा गगनांगण सुगन्धित हो रहा था || १०६ ॥ | उसके आगे कुछ दूर चलकर वीथियोंके मध्य में चार वनवीथियाँ थीं, जो सर्व ऋतुके फल-फूलोंसे युक्त दूसरे नन्दनादि वनोंके समान मालूम पड़ती थीं ||१०७|| उन बनवीथियोंमें अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्रवृक्षोंके वन थे, जो कि अति उन्नत वृक्षसमूहों से शोभित हो रहे थे || १०८ ॥ उन वनोंके मध्यभागमें जलसे भरी हुई वापियाँ थीं और कहींपर तिकोन और चतुष्कोनवाली पुष्करिणियाँ थीं || १०९ || उन वनों में कहीं पर सुन्दर भवन थे, कहींपर सुन्दर क्रीडामण्डप थे, कहीं पर दर्शनीय प्रेक्षागृह थे और कहीं पर उन्नत शोभायुक्त चित्रशालाएँ थीं ॥ ११० ॥ कहीं पर एक खण्डवाले और कहींपर दो खण्डवा देदीप्यमान प्रासादोंकी पंक्तियाँ थीं, कहींपर क्रीडास्थल थे और कहीं पर कृत्रिम पर्वत थे || ११|| वहाँ अशोक वनके बीच में अशोक नामका चैत्यवृक्ष था, जिसका पीठ रम्य, सुवर्णमयी तीन मेखलाओंवाला था और वह चैत्यवृक्ष बहुत ऊँचा था ॥ ११२ ॥ चैत्यवृक्ष तीन झालों (कोटों) से वेष्टित था, प्रत्येक शालमें चार-चार गोपुर द्वार थे । वह चैत्यवृक्ष तीन छत्रोंसे युक्त था और उसके शिखरपर शब्द करता हुआ अतिसुन्दर ECT CET AT | | ११३ ॥ | वह चैत्यवृक्ष ध्वजा, चामर आदि मंगल द्रव्योंसे और श्री जिनदेवकी प्रतिमा आदिसे युक्त था, देवगण जहाँपर पूजन कर रहे थे और वह जम्बूवृक्षके समान उन्नत था ॥ ११४॥ | इस चैत्यवृक्षके ऊपर चारों दिशाओं में दीप्तियुक्त श्री जिनमूर्तियाँ थीं, जहाँपर आकर अपने पुण्योपार्जनके लिए देवेन्द्र महान् द्रव्योंसे उनकी पूजा कर रहे थे ||११५ । इसी प्रकार शेष वनोंमें भी देवोंसे पूजित, छत्रचामर और अर्हत्प्रतिमाओंसे युक्त रमणीय सप्तपर्णादि चैत्यवृक्ष थे || ११६|| माला, शुक, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, वृषभ, हाथी और चक्र इन दश चिह्नोंकी धारक दिव्य रूपवाली ऊँची ध्वजाएँ फहराती हुई ऐसी ज्ञात होती थीं मानो मोह - शत्रुको जीत लेनेसे उपार्जित प्रभुके तीन लोकके ऐश्वर्यको एकत्रित करनेके लिए उद्यत हुई हों ॥ ११७-११८ ॥
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