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१४.९० ]
चतुर्दशोऽधिकारः
तासां मध्येषु भान्त्युच्चैस्तत्प्रमाः पीठिकाः पराः । जिनेन्द्रप्रतिमायुक्ता मणितेजोऽर्चनादिभिः ।।७७॥ पीठिकानां च मध्येषु चतुःपोठानि सच्छिया । त्रिमेखलानि दिव्यानि राजन्ते मणिदीप्तिभिः ॥७॥ तेषां मध्येषु राजन्ते कनत्काञ्चननिर्मिताः । मध्यभागजिना ढ्या मूनि छनत्रयान्विताः ॥७९॥ तुङ्गाः सार्थकनामानो दुदृशां मानखण्डनात् । मानस्तम्भा ध्वजेर्घण्टागीतनृत्यप्रकीर्णकैः ॥८॥ तेषां पर्यन्तपृथ्वीषु सन्ति वाप्यः सहोत्पलाः । दिशं प्रति चतस्त्रो मणिसोपानमनोहराः ॥८॥ नन्दोत्तरादिनामानस्ता नृत्यन्त इवोर्जिताः। ऊर्मिहस्तैविभात्युच्चैयन्त्यो वालिगञ्जनः ॥८॥ तासां तटेषु विद्यन्ते कुण्डान्यम्बुभृतानि च । तद्यावागतभव्यानां पादप्रक्षालनाय च ॥८३॥ स्तोकान्तरं ततोऽतीत्य वीथीं वीथीं च तां धराम् । चिताम्बुखातिका वने द्विरेफैः कमलाकरैः ॥४४॥ भाति सा वातसंघटोत्थतरङ्ग रवोत्करैः । नृत्यन्तीव मुदा गायन्तीव वा तन्महोत्सवे ॥४५॥ तदन्तःस्थं महोभागमवृणोत्सल्लतावनम् । वल्लीगुल्मद्गुमौघोत्थसर्वर्तुकुसुमान्वितम् ॥८६॥ रम्याः क्रीडादयो यत्र सशय्याश्च लतालयाः। पुष्पप्रकरसंकीर्णा धृतये दवयोषिताम् ॥८७॥ चन्द्रकान्तशिला यत्र लताभवनमध्यगाः । शीतला नाकिनाथानां विश्रामाय मनोहराः ॥८८॥ तद्वनं राजतेऽतीव सुन्दरं सफलं प्रियम् । अशोकाचैर्महावृक्षस्तुङ्गेर्द्विरेफगुञ्जनैः ।।८९॥ ततोऽध्वानं कियन्तं परित्यज्य महीतलम् । प्राकारः प्रथमो वने तुङ्गो हिरण्मयो महान् ॥९॥
हरण करनेवाली थीं ॥७६। उन वेदियोंके मध्यभागमें जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमासहित, मणियोंकी कान्ति और पूजनसामग्रीसे युक्त चार ऊँचे पीठ (सिंहासन ) शोभायमान थे॥७७। उन पीठोंके मध्यमें चार और छोटे पीठ थे जो उत्तम शोभासे, मणियोंकी कान्तिसे और दिव्य तीन मेखला-(कटिनी-) युक्त शोभित हो रहे थे ॥७८|| उनके मध्यमें चमचमाते सुवर्णसे निर्मित, मध्यभागमें जिनप्रतिमासे युक्त, शिखरपर तीन छत्रोंसे शोभित, ध्वजा, घण्टा आदिसे युक्त, उन्नत, मिथ्यादृष्टियोंके मान-खण्डनसे सार्थक नामवाले चारों दिशाओंकी वेदियोंपर चार मानस्तम्भ थे, जिनके समीप देव-देवांगनाएँ गीत-नृत्य करती हुई चामर ढोर रही थीं ||७९-८८||
उन मानस्तम्भोंके समीपवाली भूमिपर चारों दिशामें मणिमयी सीढ़ियोंसे मनोहर, जलभरी और कमलोंसे युक्त ऐसी चार वापियाँ थीं ॥८॥ उन वापियोंके नन्दा, नन्दोत्तरा आदि नाम थे, वे अपने जल-तरंगरूपी हाथोंसे नाचती हुई-सी, और कमलोपर भौरोंकी गुंजारसे गाती हुईके समान अत्यन्त शोभित हो रही थीं ॥८२।। उन वापियोंके किनारोंपर जलसे भरे हुए कुण्ड विद्यमान थे, जो भगवान्की वन्दना-यात्राके लिए आनेवाले भव्य जीवोंके पाद-प्रक्षालनके लिए बनाये गये थे ॥८३॥ वहाँसे थोड़ी दूर आगे चलकर वीथी (गली) थी और वीथी-धराको घेरकर अवस्थित, जलसे भरी, कमलोंके समूहों और भौरोंसे व्याप्त खाई थी ॥८४॥ वह खाई पवनके आघातसे उत्पन्न हुई तरंगोंसे और तरंग-जनित शब्दोंसे भगवान के ज्ञानकल्याणकके महोत्सवमें नृत्य करती और गाती हुई सी शोभित हो रही थी ।।८५।। उसके भीतरके भूभागको उत्तम लताओंका वन घेरे हुए था और वह लतावन अनेक प्रकारकी वेलों, गुल्मों और वृक्षों में लगे हुए सर्व ऋतुओंके फूलोंसे संयुक्त था ॥८६।। वहाँपर रमणीक अनेक क्रीड़ा करनेके पर्वत थे, जो उत्तम शय्याओंसे, लतामण्डपोंसे और पुष्प-समूहसे व्याप्त थे और जो देवांगनाओंके क्रीड़ा-कौतूहल एवं विश्रामके लिए बनाये गये थे ।।८। उन पर्वतोंपर लताभवनोंके भीतर देवेन्द्रों के विश्रामके लिए शीतल और मनोहर चन्द्रकान्तमयी शिलाएँ रखी हुई थीं ।।८८॥ उन पर्वतोपर अशोक आदिके ऊँचे महावृक्षोंसे और उनके पुष्पोंपर भौरोंकी गुंजारोंसे युक्त फलशाली, अतीव सुन्दर प्रियवन शोभायमान था ॥८९।। उसके आगे कुछ दूर चलकर महीतलको घेरे हुए, सुवर्णमयी महान् उन्नत प्रथम
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