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श्री-वीरवर्धमानचरिते
[९.१४कनत्स्वर्गमयैः कुम्भैर्मुखे योजनविस्तृतैः । अष्टयोजनगम्भीरैर्मुक्तादामाद्यलंकृतैः ॥१४॥ सहस्रप्रमितान् बाहून् दिव्याभरणमण्डितान् । विनिर्ममे तदादीन्द्रः स्नपनाय जिनेशिनः ॥१५॥ स तैः साभरणहस्तैः सहस्रकलशान्वितैः । बभौ सद्भाजनाङ्गाख्यः कल्पशाखीव तेजसा ॥१६॥ ततो जयेति संप्रोच्य त्रिवार निजमूर्धनि । महतीं प्रथमां धारां सौधर्मेन्द्रो न्यपातयत् ॥१७॥ वदा कलकलो भूयान् प्रचक्रेऽसंख्यनिर्जरैः । जय जीव पुनीहि त्वमिति वाक्यमनोहरैः ॥१८॥ तथा सर्वैः सुराधीशैः समं धारा निपातिताः ।बहुशस्तैर्महाकुम्भैः स्वर्नदीपूरसंनिभाः ॥१९॥ यस्याद्रेर्मूनि ता धाराः पतन्ति तत्प्रहारतः । तत्क्षणे सोऽचलो नूनं प्रयाति शतखण्डताम् ॥२०॥ तादृशीः पततीर्धारा मूर्धनि श्रीजिनेश्वरः। अप्रमाण महावीर्यः कुसमानीव मन्यते ॥२१॥ उच्छलन्स्यो विरेजुस्ता अपछटाः खेऽतिदूरगाः। जिनाङ्गस्पर्शमात्रेण पापान्मुक्ता इवोर्ध्वगाः ॥२२॥ तिर्यग्विसारिणः केचित् स्नानाम्भःशीकरा विमोः । भुक्ताफलद्युतिं तेनुर्दिग्वधूमुखमण्डने ॥२३॥ रेजे तदम्मसां परः परितस्तद्धनान्तरे । आप्लावयन्निवादीन्द्र विचित्राकारजर्जितः ॥२४॥ पद्मरागैर्धरापीठैः क्वचिन्मरकतप्रभैः । नानामणिमयैश्चान्यैः कुम्मास्यात्पतिताम्बुजैः ॥२५|| तत्स्नानाम्भोभिराकीणं तद्वनं भग्नपादपम् । बभौ निरन्तरं दृष्ट्या क्षीरार्णव इवापरः ॥६॥ इत्यायैर्विविधैर्दिव्यमहोत्सवशतैः परैः। दीपधूपार्चनागीतनृत्यवाद्यादिकोटिभिः ॥२०॥ सामग्या परया सार्धं शुद्धाम्बुस्नपनं विभोः । संपूर्ण कल्पनाथास्ते प्रचक्रुः स्वात्मसिद्धये ॥२८॥
श्रेणी (पंक्ति ) क्षीरसागर और सुमेरुपर्वतके बीच में जल लानेके लिए हर्ष के साथ खड़ी हो गयी ॥१२-१३॥ जिन कलशोंसे जल लाया जा रहा था वे चमकते हुए स्वर्ण निर्मित थे, मोतियोंकी माला आदिसे अलंकृत थे, आठ योजन ऊँचे ( मध्यमें चार योजन चौड़े ) और मुखमें एक योजन विस्तृत थे ॥१४॥ उन एक हजार कलशोंको लेकर जिनेश्वरका अभिषेक करनेके लिए सौधर्मेन्द्रने दिव्य आभूषणोंसे मण्डित अपनी एक हजार भुजाएँ बनायीं ॥१५।।
। समय वह आभषणवाले तथा हजार कलशोंसे यक्त हाथोंके द्वारा अपने तेजसे भाजनाङ्ग जाति के कल्पवृक्षके समान शोभित हुआ ॥१६॥ सौधर्मेन्द्रने तीन बार जय-जय शब्दको बोलकर भगवानके मस्तकपर पहली महान जलधारा छोड़ी ॥१७॥ उस समय भारी कल-कल शब्द हुआ, असंख्य देवोंने 'भगवान , आपकी जय हो, आप पवित्र हो' इत्यादि प्रकारके मनोहर वाक्य उच्चारण किये ।।१८। इसी प्रकार शेष सर्व देवेन्द्रोंने भी एक साथ उन महाकुम्भोंके द्वारा स्वर्गङ्गाके पूरके सदृश जल धारा छोड़ी ।।१९।। ऐसी विशाल जलधाराएँ जिस पर्वतके शिखरपर छोड़ी जावें तो उसके प्रहारसे वह पर्वत तत्काल नियमसे शत खण्ड हो जाय ॥२०॥ किन्तु अप्रमाण महावीर्यशाली श्री जिनेश्वर देवने अपने मस्तकपर गिरती हुई उन जलधाराओंको फूलोंके समान समझा ।।२१।। उस समय अति दूर तक ऊपर उछलते हुए जलके छींटे ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो जिनेन्द्र के शरीरके स्पर्शमात्रसे पाप-मुक्त होकर ऊपरको जा रहे हैं ।।२२।। प्रभुके स्नान जलके कितने ही तिरछे फैलते हुए कण दिग्वधुओंके मुखमण्डनमें मुक्ताफलोंकी कान्तिको विस्तार रहे थे ।।२३।। अभिषेकका जल-पूर सुमेरुके वनमध्यभागमें नाना प्रकारके आकारवाला होकर गिरीन्द्र ( सुमेरु ) को आप्लावित करता हुआ सा शोभित हो रहा था ॥२४॥ भगवान के अभिषेक किये हुए जलसे व्याप्त होनेके कारण डूबे हुए वृक्षोंवाला वह पाण्डुकवन निरन्तर जलवृष्टि से दूसरे क्षीरसागरके समान शोभित हो रहा था ॥२५।। इत्यादि अनेक प्रकारके दिव्य परम सैकड़ों महोत्सवोंसे, दीप-धूपादिसे की गयी पूजाओंसे, कोटि-कोटि गीत नृत्य और बाजोंके द्वारा उत्कृष्ट सामग्रीके साथ उन स्वर्गके स्वामी इन्द्रोंने अपने आत्म-कल्याणके लिए भगवान्का शुद्ध जलसे अभिषेक किया ॥२६-२८॥
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