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नवमोऽधिकारः
तामथावेष्टय सर्वत्र द्रष्टुकामा महोत्सवम् । जिनेन्द्रस्य यथायोग्ये तस्र्धमोद्यताः सुराः ।।१॥ दिग्पालाः स्व-स्वादिग्भागं स्वैनिकायैः समं गुदा । तिष्ठन्ति इष्टुकामास्त उजन्सकल्याणसंपदः ॥२॥ महान् मण्डपविन्यासस्तन चक्रेडमरैः परः । यत्र देवगणं कृत्स्नमास्ते स्माबाधितं मिथः ॥३॥ तत्रावलम्बिता मालाः कल्पभूरुह पुष्पजाः । रेजुर्धभरझङ्कारैर्गातुकामा इवेशिनम् ॥॥ तत्र प्रारंभिरे दिव्यं गीतगानं कलस्वनाः । गन्धर्वाश्च सुकिन्नों जिनकल्याणणः ॥५॥ नृत्यं चामरनर्तक्यो बहभायरसाङ्किताः । ध्वनन्ति देववाद्योधाः क्षिप्यन्तेऽर्धाः अनेकशः ॥६॥ शान्तिपुष्टयादिकामैचोक्षिप्यन्ते धूपराशयः। सुराः कलकलं कुयु जयनन्दादिघोषणः ॥७॥ अथ सौधर्मनाकेशो विभोः प्रथममजने । प्रचक्रे कलशोद्धारं कृत्वा प्रस्तावनानिधिम् ॥८॥ ऐशानेन्द्रोऽपि सानन्दो मुक्तास्रक्चन्दनार्चितम् । आदद कलशं पूर्ण कलशोद्वारमन्त्रवित् ॥९॥ शेषाः कल्पाधिपाः सर्वे सानन्दजयघोषणाः । परिचारकतामापुर्यथोत्तपरिचर्यया ॥१॥ इन्द्राणीप्रमुखा देव्यो धर्मरागरसोत्सुकाः । तदासन् परिचारिण्यो मङ्गल द्रव्यमण्डिताः ॥११॥ पूतं स्वायंभुवं देहं निसर्गाक्षीरशोणितम् । स्पष्टु नान्यजलं योग्यं दुग्धाब्धिसलिलादते ॥५॥ मत्वेति नाकिनो नूनं ततः श्रेणी कृता मुदा । प्रस्ता अम्भ आनेतुमन्तरेऽध्यचलेन्द्रयोः ।।१३।।
अथानन्तर जिनेन्द्रदेवके जन्म महोत्सवको देखनेके इच्छुक धमोद्यत वे सर्वदेव उस पाण्डुक शिलाको सर्व ओरसे घेरकर यथायोग्य स्थानोंपर बैठ गये ॥११॥ भगवान्के जन्मकल्याणककी सम्पदाको देखने के इच्छावाले दिग्पाल अपने-अपने निकायों (जाति-परिवारों) के साथ अपने-अपने दिग्भागमें हर्षपूर्वक बैठे ॥२॥ वहाँ पर देवोंने एक विशाल मण्डप बनाया, जहाँ पर समस्त देवगण परस्पर बिना किसी बाधाके सुखपूर्वक बैठे ॥३।। उस मण्डपमें कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए फूलों की मालाएँ लटकायी गयीं, उनपर गुंजार करते हुए भौरे ऐसे मालूम पड़ते थे, मानो जिनेन्द्रदेवके गुण ही गा रहे हों ।।४|| वहाँ पर सुन्दर कण्ठवाले किन्नर और किन्नरियोंने जिनदेवके जन्मकल्याणक-सम्बन्धी गुणोंके द्वारा दिव्य गीत गाना प्रारम्भ किया ।।५।। देव-नर्तकियोंने अनेक रस-भावसे युक्त नृत्य करना प्रारम्भ किया। देवोंके नाना प्रकार के बाजे बजने लगे, शान्ति-पुष्टि आदिकी इच्छासे देवाने अनेक प्रकारके पुष्प, अक्षत-मुक्ता आदि फेंकना प्रारम्भ किया, सुगन्धित धूप-पुंज उड़ाया गया और देवोंने जय, नन्द' आदि शब्दोंको उचारण करते हुए कलकल नाइ किया। ६-७।।
तत्पश्चात् सौधर्म इन्द्रने प्रस्तावना विधि करके भगवान के प्रथमाभिषेकके लिए कलशोंका उद्धार किया ।।८।। कलशोद्वारके मन्त्रको जाननेवाले ईशानेन्द्रने भी आनन्दके साथ मोती, माला और चन्दनसे चर्चित जलसे भरे हुए कलशको हाथ में लिया ॥२॥ उस समय शेष सभी कल्पोंके इन्द्र आनन्दपूर्वक जय-जय शब्द उच्चारण करते हुए यथायोग्य परिचर्याके द्वारा परिचारकपनेको प्राप्त हुए ।॥१०॥ धर्मरागके रससे परिपूर्ण इन्द्राणी आदि देवियाँ मंगल द्रव्योंसे मण्डित होकर परिचारिकाएँ बनकर परिचर्या करने लगीं ॥११॥ 'स्वयम्भू भगवान्का देह स्वभाव से ही क्षीर रक्त वर्णवाला होनेसे पवित्र है' अतः इसे क्षीरसागरके जलसे अतिरिक्त अन्य जल स्पर्श करने के लिए योग्य नहीं है। ऐसा निश्चय करके देवोंकी
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