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नवमोऽधिकारः पुनः श्रीतीर्थकर्तारमभ्यषिञ्चच्छताध्वरः । गन्धाम्बुवन्दनायै च विभूत्यामा महोत्सवैः ॥२९॥ सुगन्धिद्रव्यसन्मिश्रसुगन्धिजलपूरितैः । गन्धोदकमहाकुम्भैर्मणिकाञ्चननिर्मितैः ॥३०॥ पतन्ती सा गुरोरङ्गे धारा रेजेऽतिपिञ्जरा । तद्गात्रस्पर्शमात्रेण संजातेवाति पावनी ॥३१॥ जगतां पूरयन्न्याशाः सर्वाः पुण्यविधायिनीः । पुण्यधारेव धारासौ नस्तनोतु शिवश्रियम् ॥३२॥ या पुण्यात्रवधारेव सूते विश्वान्मनोरथान् । सा नः करोतु सिद्धयर्थं समस्ताभीष्टसंपदः ॥३३ निशाता खड्गधारेव विघ्नजालं निहन्ति या। सतां सा हन्तु नौ धारा प्रत्यूहान् शिवसाधने ॥३४॥ सुधाधारेव या पुंसां निहन्त्यखिलवेदनाम् । सास्माकं वेदनां हन्तु मोक्षाध्वमलकारिणीम् ॥३५॥ दिव्याङ्गं श्रीमतः प्राप्य या यातातिपवित्रताम् । पवित्रयतु सास्माकं मनोदुःकर्मजल्लतः ॥३६॥ इत्थं गन्धोदकैः कृत्वा तेऽभिषेकं सुरधिपाः। विभोः शान्त्यै सतां शान्ति घोषयामासुरुच्चकैः ॥३७॥ तत्सुगन्धाम्बु ते चक्रुरुत्तमाङ्गेषु नाकिनः । सर्वाङ्गेषु स्वशुद्धयै च स्वर्गस्योपायनं मुदा ॥३८॥ गन्धाम्बुस्नपनस्यान्ते जयादिघोषणः सह । व्यात्युक्षी ते मुदा चक्रः सचूर्णर्गन्धवारिभिः ॥३९॥ निवृतावमिषेकस्य कृतमज्जनसक्रियाः । आनर्चुस्तं महाभक्त्या देवेन्द्रा नृसुरार्चितम् ॥४०॥ दिव्यैर्गन्धैस्ततामोदैमुताफलमयाक्षतैः । कल्पशाखिजमालाथैः सुधापिण्डचरुवजैः ॥४१॥ मणिदीपैर्महाधूपैः कल्पद्मफलोत्करैः । मन्त्रपूतैः महापैंश्च कुसुमाञ्जलिवर्षणः ॥४२॥
कृतेष्टयः कृतानिष्टविधाताः कृतपौष्टिकाः । इति जन्माभिषेकं भोः सुरेशा निरतिष्ठपन् ॥४३॥ पुनः सौधर्मेन्द्रने गन्धोदककी वन्दनाके लिए परम विभूति और महान उत्सवोंके साथ सुगन्धी द्रव्योंके सम्मिश्रणसे सुगन्धित जलसे भरे हुए, मणि और सुवर्णसे निर्मित गन्धोदकवाले महाकुम्भोंसे भी तीर्थकर देवका अभिषेक किया ॥२९-३०|| जगद्गुरुके शरीरपर गिरती हुई वह अनेक वर्णवाली जलधारा उनके शरीरके स्पर्शमात्रसे अत्यन्त पवित्र हुई के समान शोभाको धारण कर रही थी ॥३१।। जगत्के जीवोंकी सर्व आशाओंको पूर्ण करनेवाली, पुण्यविधायिनी पुण्यधाराके समान वह जलधारा हमलोगोंको शिवलक्ष्मी देवे ॥३२ जलधारा पुण्यात्रवधाराके समान सर्व मनोरथोंको पूर्ण करती है, वह हमारे भी समस्त अभीष्ट सम्पदाकी सिद्धि करे ।।३३।। जो तीक्ष्ण खड्गधाराके समान सज्जनोंके विध्न जालका नाश करती है, वह जलधारा हमारे शिव-साधनमें आनेवाले विघ्नोंका नाश करे ॥३४।। जो जलधारा अमृतधाराके समान जीवोंकी समस्त वेदनाओंको नष्ट करती है, वह हमारे मोक्षमार्गमें मल उत्पन्न करनेवाली वेदनाका नाश करे ॥३५॥ जो जलधारा श्रीमान वीरनाथको प्राप्त होकर अति पवित्रताको प्राप्त हुई है, वह हमारे मनके दुष्कर्मोंसे हमें पवित्र करे ॥३६॥
इस प्रकार उन देवेन्द्रोंने प्रभुका सुगन्धित जलसे अभिषेक करके सज्जनोंके विघ्नोंकी शान्ति के लिए उच्चस्वरसे शान्तिकी घोषणा की, अर्थात् शान्ति पाठ पढ़ा ॥३७। उन देवोंने अपनी शरीरकी शुद्धिके लिए स्वर्गकी भेंट समझकर हर्ष के साथ उस उत्तम गन्धोदकको अपने मस्तकपर और सर्वांगमें लगाया ॥३८।। सुगन्धित जलसे अभिषेक होनेके अन्तमें जयजय आदि शब्दोंको उच्चारण करते हुए उन देवोंने हर्षके साथ उस चूर्ण-युक्त सुगन्धित जलसे परस्पर सिंचन किया अर्थात् आपसमें उस सुगन्धित जलके छींटे डाले ॥३९।। इस प्रकार अभिषेकके समाप्त होनेपर शरीरमज्जनरूप सक्रिया करके उन देवेन्द्रोंने देवों और मनुष्योंसे पूजित प्रभुकी महाभक्तिके साथ, जिनकी सुगन्ध सर्व ओर फैल रही है ऐसे दिव्य सुगन्ध द्रव्योंसे, मुक्ताफलमयी अक्षतोंसे, कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न हुए पुष्पोंकी माला आदिसे, अमृतपिण्डमय नैवेद्य पुंजसे, मणिमय दीपोंसे, महान् धूपसे, कल्पवृक्षोंके फल-समूहसे, मन्त्रोंसे पवित्रित हायोंसे और पुष्पांजलियोंकी वर्षासे पजा की॥४०-४२॥ इस प्रकार अनिष्टोंका विनाश करनेवाली पूजाओंको करके, तथा शान्ति-पौष्टिकादि कार्यों को करके उन देवेन्द्रोंने जन्माभि
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