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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८७) ३ दुसरी प्रमेयकी सादृशता मिथ्यापणेमे कारणहै. साभी ब्रह्म जगत्को परस्पर विलक्षण होनेते नही बनती. तीसरा भयलोभादिकभी नही बनता. अध्याससे प्रथम प्रमाताकाही अभाव होनेते तिसमे भयलोभादिकोंका अंगीकारही असंभव है. और चतुर्थ कारण जो प्रमाणमें पित्तकामलादिक दोष है सोभी अध्याससे पूर्व प्रमाणका ही असंभव होनेते प्रमाणगतपित्तादिदोषोंकी आशाहीक्या करनी. और पंचम जो अधिष्ठानका सामान्य ज्ञान तथा विशेष अज्ञान मिथ्यापणेका साधक है सोनी नही बनता. ब्रह्मको आकाशवत् निरंश होनेते सामान्य विशेषनाव नही बनता तथा ब्रह्मको स्वप्रकाश होनेते तिसमे सूर्यके विषेतमकी न्याई विशेष अज्ञानभी नही बनता.इस कारण पंचप्रकारकी मिथ्यापनेके सिद्ध करनेकी सामग्रीके अनाव होनेते जगतकोसत्यताहीबने है. तिस सत्य संसारकी ज्ञानसे निवृत्ति नही होनेते परमानंदकी प्राप्तिकीभी आशाभंग होनेते ग्रंथका प्रयोजन नही बनता. आप इनका उत्तर कहो. ४ श्री गुरुरुवाच. हे विशालबुद्धे पूर्व जो तुमने कहा जो सत्यवस्तुके ज्ञानजन्यसंस्कार अध्या सके कारण है सो यह नियम नही.किंतु मिथ्या इंद्रजालविनिर्मित सर्पकों देख करकेभी For Private and Personal Use Only
SR No.020885
Book TitleVedant Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVigyananand Pandit
PublisherSarasvati Chapkhanu
Publication Year1837
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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