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मैदस्तिहूं मेरेमे दस्ति दै एसा अनुभव की भी होवेनही कारणयह है जो मै हस्तिहूं एसे पूर्वज्ञानजन्य संस्कार नही याते एसाअनुभवभी होतानही॥
३॥ और पूर्वअनुभव किससंस्कारोंते भया सो कहनाचाहीये संसारको उत्पत्तिवालाहोनेते सो कौन प्रथम संस्कारते भया सो एसी तुमने शंकाही नही करनी काहेते जो यह संसार प्रवाहरूपसें अनादिमान्या है अनादिपक्षविषे पूर्वपूर्वते उत्तर अंगीकार कीया है ते संपूर्णसदसत्से विलक्षण अनिर्वचनीय है जैसेशुक्तिमे रजतका अनिर्वचनीय अर्थात् सत्असतरूपसे जो न कह्या जावे एसा अनुभवहोवे है ॥
४॥ शिष्य उवाच-हे नाथ जो आपने कहा है रजत अनिर्वचनीय है सो बनतानही काहेते जो रजतसत्असत्से विलक्षणकहनेमे आवे है जैसे सत्विलक्षण असत्कह्याजाता है अरुअसविलक्षण सत कह्याजावे है सो अनिर्वचनीय कैसे कहते हो किंतु यह तो निर्वचनीयही है॥
५॥ श्रीगुरुरुवाच-हे मुने यहकहना सत्असत्के ज्ञानदीन पुरुषका हे को विवेकी पुरुषका कहनानही काहेते. जो शुक्तिमे जो रजत है तो असत् जे खपुष्प है तिनते विलक्षण है नेत्र जन्यज्ञानका विषयहोनेते खपुष्पनेत्रज्ञान के विषय नहींहोते
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