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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२१) ४|| और स्वप्नावस्था मे तो साक्षीके आश्रितजा अविद्या है सा अविद्यादी तमोगुणसें विषयाकार परिणामकोंपावे है और सत्वगुण से ज्ञानाकारपरिणाकोपा है ति कारणते ही बाह्यसपदि भ्रमको तथा अंतर स्वमादिभ्रमको अविद्याकी वृत्तिद्वारा केवलसाक्षीही प्रकाशकरे है सो भ्रम अविद्याका पणाम है चेतनका विवर्त है उपादानके समान सत्तावाला उपादानसे विलक्षण स्वरूपवालेका नाम परिणाम है और उपादान से विपरीत सत्तावाला विलक्षण स्वरूपकों विवर्तक है | - ५॥ मिथ्या सर्पका अधिष्ठान रज्जुवाला चेतन है केवल रज्जुही नही रज्जुको भी सर्पसमान कल्पित होनेसे स्वयं कल्पित हूवा दूसरे कल्पितका अधिष्ठान नही होय सकता क्यों जो विशि ष्ट धर्म रहे है सो विशेषणमे भी नियमसे रहि सकता है जैसे जो नीलवस्त्रपर बैठेगा सो नील रंगपर भी नियमसे बैठेगा || For Private and Personal Use Only शिष्य उवाच - हे भगवन् अधिष्ठानके ज्ञान से ही कल्पितकी नियमसे निवृति होती है यहां सर्पका अधिष्टान तो रज्जु उपदित चेतन है केवल रज्जु नही ॥ यांते चेतनको मन इंद्रियों का अविषय होनेसे चेतनके ज्ञानसे विना केवल
SR No.020885
Book TitleVedant Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVigyananand Pandit
PublisherSarasvati Chapkhanu
Publication Year1837
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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