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सामासिकमूमिका ॥
आवेंगे इन समासों को यथार्थ जानने से सर्वत्र मिले हुए पद पदार्थ और बाक्यार्थ जानने में अतिसुगमता होती है और समस्तपदयुक्त संस्कृत बोलना तथा दूसरे का कहा समझ भी सकता है यह भी व्याकरण विद्या की अवयव विद्या है जैसी कि संधिविषय और नामिक विद्या लिख आये । यहां जो पठन पाठन के लिये एक उदाहरण वा प्रत्युदाहरण लिखा है इसे देख इसके समान अन्य उदाहरण वा प्रत्युदाहरण भी ऊपर से पढ़ने पढ़ाने चाहिये । इसके आगे प्रकृत जो कुछ लिखा जाता है वह सब ( समर्थः पदविधिः ) इस सूत्र के भाष्यस्थ वचन हैं । जिस को जानने की इच्छा हो वह उक्त सूत्र के महाभाष्य में देख लेवे ( सापेक्षमसमर्थ भवतीति ) ओ एक पद के साथ अपेक्षा करके युक्त हो वह समर्थ होता है और जो अनेक पदों के साथ आकर्षित होता है वह प्रायः समास के योग्य नहीं होता । जो सापेक्ष असमर्थ होता है ऐसा कहा जावे तो राजपुरुषो दर्शनीयः । यहां वृत्ति प्राप्त न होगी यह दोष नहीं, यहां प्रधान सापेक्ष है क्योंकि प्रधान सापेक्ष का भी समास होता है और जहां प्रधान सापेक्ष है वहां वृत्ति अर्थात् समास होगा । उदाहरणम् । देवदत्तस्य गुरुकुलम् । यह दोष नहीं । यहां षष्ठी समुदाय गुरुकुल की अपेक्षा करती है । जहां षष्ठी समुदाय की अपेक्षा नहीं करती वहां समास भी नहीं होता । किमोदनः शालीनाम् । यह कौन शाली अर्थात् चावलों का प्रोदन है ऐसे भर्थ में तण्डुलमात्र की अपेक्षा करके यह षष्ठी नहीं है । इसलिये यह समुदाय अपेक्षा नहीं । इत्यादिक स्थलों में समास नहीं होता। समास समर्थों का होता है । समर्थ किसको कहते हैं । पृथक् । अर्थवाले पदों के एका भाव को । यहां अगले वाक्यों में पृथक् २ अर्थवाले पद हैं । जैसे-राज्ञः पुरुषः इस वाक्य में राज्ञः और पुरुषः ये दोनों पद अपने २ अर्थ के प्रतिपादन करने में समर्थ हैं । और समास होने से इनका एकार्थीभाव हो जाता है । यथा-राजपुरुष इत्यादि प्रयोगों में समासकृत क्या विशेष है । विभक्ति का लोप अव्यवधान यथेष्ट परस्पर सम्बन्ध एकस्वर एकपद
और एकविभक्ति रहती है । एकार्थीभाव पक्ष में समर्थ पद का अर्थ-संगतार्थः समर्थः संसृष्टार्थः समर्थ इति । और जैसे संसृष्टार्थ है जैप-संगतं घृतम् ऐसा कहने से मिला
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