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'शिवारुते बलिविधानप्रकरणम्। (५११) शन्यालयं रुद्रगृहं श्मशानं चतुष्पथं मातृगृहं जलांतम् ॥ वंध्यावनिश्चत्वरमेवमाया बलिप्रदानाय मताः प्रदेशाः॥८२॥ तेषां च मध्यादुदितप्रदेशे विशोधिते मंडलकं विदध्यात् ॥ पौराणिकश्लोकपरीक्षितायाः संगृह्य गोर्गोमयमंतरिक्षात ८३॥ अत्यंतजीर्णदेहाया वंध्यायाश्च विशेषतः॥ रोगार्त्तनवमताया न गोर्गोमयमहरेत् ॥ ८४ ॥ तस्मिन्विचित्रं विततं विदध्यात्पिष्टातकेनाष्टदलं सरोजम् ॥ संपूजयेत्तत्र सुराधिपादीक्रमेण सर्वानपि लोकपालान् ॥ ८५॥
॥ टीका ॥
लिविधानं दिव्यमंत्रबलिबाधितदोष दिव्यमंत्रेण प्रतिष्ठितो यः बलिः पूजा तेन वाधिता दोषा येन तत्तथा । पुनः कीदृशं साधिताखिलसमुद्यतकार्य साधितमखिलं समुद्यतानां कार्य येन तत्तथेति॥८॥शून्येति॥एवमायाःइत्यादिका प्रदेशाः स्थानविशेषाः बलिप्रदानाय मता इष्टाः एतानेव दर्शयति । शून्याश्रयं शून्यं स्थलं क्वचिच्छन्यालयमित्यपिपाठः। रुद्रगृहं शंभुगृहं श्मशानं प्रेतगृहं चतुष्पथं यत्र चत्वारः पंथानो मिलंति वंध्यावनिः मुंडितभूमिः॥८२॥ तेषामिति ॥ तेषां स्थलानां मध्याद्विशोधित उदितप्रदेश पूर्वोदितं मंडलकं विदध्यात्। किं कृत्वांतरिक्षादाकाशादोर्गों मयं संगृह्या नोंतरिक्षं गगनमतं सुरवर्त्म खम्'इत्यमरः । कथंभूतायाः गोः पौराणिकश्लोकपरीक्षितायाः इदं तु पूर्वमेव व्याख्यातम् ॥८३॥ अत्यंतेति ॥ पूर्वमिदं व्याख्यातम् ॥८॥ तस्मिन्निति ॥ तस्मिन् मंडल के पिष्टातकेन विचित्र विविधवर्ण
॥ भाषा ॥ ये बलिविधान कैसो है जो दिव्य मंत्रन करके बलिपूजा करै तो सबले दोष दर होय और या करकेही जितने अपने कार्य उद्युक्त होय रहे होय वेभी होय ॥ ८१॥ शन्येति ॥ सूनो स्थल होय, शिवमंदिर होय, श्मशान होय, चौरायो होय, ऊखर पृथ्वी होय इनकं आदिलेके स्थान शिवाबलि देवेके योग्य हैं ॥ ८२ ॥ तेषामिति ॥ इनके मध्यमेंसे सोधो हुयो योग्य स्थान तामें पहले कह्यो जो मंडल ताय कर पहले गौको गोबर हाथके हाथमें लियो हुयो होय वाको मंडल बनानो ॥ ८३ ॥ अत्यंतति ॥ अत्यंतर्णि देह जाको होय वंध्या होय रोगली होय नवीन व्याई होय ऐसी गौको गोबर नहीं लेनो ॥८॥ तस्मिन्निति ॥ ता मंडलमें चूनको चित्रविचित्र लंबो चोडो भष्टदल कमल करे वा कम
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