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(१८८) . वसंतराजशाकुने-सप्तमो धर्गः। विधूय गात्राणि विधाय विष्ठां तारस्तरं चेच्छ्रयते विहंगः॥ तद्गर्भनाशो यदि कृत्तशाख शस्त्रेण जातस्य तदा विपत्तिः ॥ २८५ ॥ गत्वानुलोमं यदि 'विहंगः स्थिति विधत्ते प्रचले पदार्थे ॥ तदा स जातो भ्रमणक्षमः सन्प्रयाति भूरीणि दिगंतराणि॥२८६॥ निमज्य धूल्यामनुलोमयायी शुभं प्रदेशे श्रयते खगश्चेत् ॥ गर्भाद्विमुक्तो नियतं तदानीं भवेत्परिव्राजकमुख्यभूतः ॥ २८७ ॥ कृत्वा निनादं फलपुष्पपत्रविवर्जिते भूरहि याति तारा ॥ ततः श्रयेत्तादृशमेववृक्षं तदा ध्रुवं स्यात्कृपणस्वभावः ॥ २८८॥
॥ टीका ॥ विधूयेति ॥ यदि गात्राणि विधूय वर्चः विधाय तारः संस्तरं श्रयते तदा तद्गर्भस्य नाशो भवति । यदि शस्त्रेण कृत्तशाखं तरं श्रयते तदा जातस्य विपत्तिः स्यात् ।। २८५ ॥ गत्वेति ॥ यदि 'विहंगः अनुलोमं प्रदक्षिणं गत्वा चपले पदार्थ स्थितिं विधत्ते तदा स जातः भ्रमणक्षमः सन्भूरीणि दिगंतराणि प्रयाति ॥२८६ ॥ निमज्येति ॥ धूल्यां निमज्य अनुलोमयायी सन् खगः शुभं प्रदेशं श्रयते तदा स गर्भाद्विमुक्तः परिव्राजकमुख्यमतः भावी ॥२८७ ॥ कृत्वेति॥ यदि फलपुष्पपत्रविवर्जिते भूमहि निनादं कृत्वा तारः याति तादृशमेव दृक्षं यद्याश्र
॥ भाषा ॥
और गीलो होय तो व्याधिके वशीभूत होय ॥ २८४ ॥ विधयेति ॥ जो विहंगदेहकू कंपायमानकर वीट करके कामसूं दक्षिण आय जाय फिर वृक्षपै बैठ जाय तो गर्भको नाश करे और जाकी शाखा कटी होय ता वृक्ष4 बैठ जाय तो उत्पन्नहुये बालककू शस्त्रकरके विपत्तिहोय ॥ २८५ ॥ गत्वति ॥ जो पुरुष विहंगवामसू दक्षिणदिशामें जायकर चपलपे अथवा चलरहै ऐसेपदार्थ गाडी, घोडा, ऊंट इत्यादिकनौ स्थिति करै तो उत्पन्नहुयो बालक बहुतसे देशदेशांतरनमें भ्रमण करने वालो होय ॥ २८६ ॥ निमज्येति ॥ जो खग चलमें स्नानकरके वामते दक्षिगमें आय शुभदेशमें स्थित होय तो गर्भ सं प्रगट हुयो बालक नि श्चयही संन्यासीनमें मुख्य होय ॥ २८७ ॥ कृत्वेति ॥ जो वाममें फल, पुष्प, पत्र इनकरके रहित वृक्षपे शब्दकरके फिर दक्षिणमें आय जाय और वैसेही वृक्षपै जो स्थित होय तो
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