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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org इतनी अधिक बढ़ गई थी कि वहाँ से उसके आयात के परिवर्तन में स्वर्ण के निर्यात से रोम का कोष जब रिक्त होने लगा, तो कि समय वहाँ के शासक को विवश होकर उसके आयात-निर्यात पर रोक लगानी पड़ी थी । दिल्ली (वर्तमान दिल्ली) का महासार्थवाह नट्टल ( 13वीं सदी) इतना बडा व्यापारी था कि देश-विदेश में उसकी 46 गद्दियाँ (Chambers of Commerce, Trade and Industries) थीं। इसकी रोचक चर्चा हरियाणा के महाकवि विबुध श्रीधर (13वीं सदी) ने अपने वड्ढमाण- चरिउ एवं पासणाहचरिउ (प्रो. डॉ. राजाराम जैन द्वारा सम्पादित और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित) की प्रशस्तियों में की है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4. ज्ञान- यात्रा अथवा शास्त्रार्थ - - यात्रा- एतद्विषयक साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं है, फिर भी जो कुछ मिलता है, वह है अत्यन्त रोचक । उसमें वेद-वेदांगों के महामनीषी किन्तु अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य के कारण अहंकारी स्वभाव वाले इन्द्रभूति गौतम की यात्रा प्रमुख है। जब वे इन्द्र द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाए थे, तब वे शास्त्रार्थ करने अथवा ज्ञानार्जन करने की भावना से अपने गृहनगर गोबरग्राम ( नालन्दा, बिहार) से शिष्य-मण्डली के साथ केवलज्ञान के धारी वर्धमान महावीर के समवसरण में आ रहे थे। समवसरण के मुख्य द्वार पर मानस्तम्भ के सम्मुख पहुँचते ही उनका अहंकारीस्वभाव स्वयमेव विगलित हो गया था। तत्पश्चात् विनम्र भाव से वे समवसरण में पहुँचे और अन्ततः महावीर के पट्टशिष्य बनकर उनके प्रवचनों को सर्वप्रथम द्वादशांग - वाणी के रूप में ग्रथित किया और गौतम गणधर के नाम से श्रमण-संस्कृति के आद्य-आराधकगुरु के रूप में विख्यात हुए । श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में उपलब्ध पाषाणोत्कीर्ण "मल्लिषेण - प्रशस्ति" के अनुसार आचार्य समन्तभद्र (दूसरी सदी ) अद्भुत शास्त्रार्थ - प्रेमी थे। ज्ञानोन्मत्त - पण्डितों को डंका पीटकर शास्त्रार्थ के लिए चुनौतियाँ देते हुए यात्राएँ करना उनका स्वभाव बन गया था । काँची (दक्षिण-भारत) से चलकर अनेक नगरों का भ्रमण करते-करते जब वे वाराणसी पहुँचे, तो वहाँ के राजा शिवकोटि ने जब उनका परिचय पूछा, तब समन्तभद्र ने अपने उत्तर में स्वयं कहा था कि "मैं काँची से लाम्बुश, पुण्ड्रोड एवं दशपुर होता हुआ यहाँ वाराणसी आया हूँ। हे राजन्, मैं जैन निर्ग्रन्थवादी हूँ । यहाँ जिस किसी की भी शक्ति हो, मुझसे शास्त्रार्थ करने हेतु मेरे सम्मुख आ जाय। " यथा 86 :: जैनधर्म परिचय कांच्यां नग्नाटकोऽहं मलमलिनतनुलम्बुशी पाण्डुपिण्डः, पुण्ड्रेण्डे शाक्यभिक्षुर्दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूवं शशकरधवलः पाण्डुरागस्तपस्वी, राजन्, यस्यास्ति शक्तिः सः वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी || आचार्य समन्तभद्र एक अत्यन्त निर्भीक, शास्त्र - पारंगत, तर्कशास्त्री, शास्त्रार्थी थे । For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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