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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यात्रा का लक्ष्य किसी एक प्रदेश-विशेष अथवा राज्य-विशेष से ही होता था। विश्वइतिहास में ऐसी अनेक युद्ध-यात्राओं के वर्णन मिलते हैं, जिनमें सिकन्दर की विश्वविजय यात्रा, सम्राट अशोक की कलिंग-युद्ध यात्रा, सम्राट खारवेल की मगध एवं सीमान्तवर्ती उत्तर तथा दक्षिण भारत की युद्धयात्राएँ, गंग, राष्ट्रकूट एवं चालुक्य राजाओं की युद्ध-यात्राएँ विस्तार-पूर्वक वर्णित हैं। इनके विशेष-अध्ययन के लिए सम्राट अशोक के शिलालेख तथा स्तम्भ-लेख, हाथीगुम्फा-शिलालेख, श्रवणवेलगोल के शिलालेख तथा आचार्य हेमचन्द्र द्वारा लिखित कुमारपाल-चरित का पारायण आवश्यक है। संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के जैन-साहित्य में अनेक पौराणिक राजाओं की युद्धयात्राओं के रोचक वर्णन उपलब्ध हैं। ____ 3. व्यापार-यात्रा- किसी भी देश की समृद्धि का ज्ञान उसकी व्यापारिक-यात्राओं तथा आयात-निर्यात (Import and Exporn) की जाने वाली क्रय-विक्रय सम्बन्धी सामग्रियों से होता है। प्राचीन एवं मध्यकालीन प्राकृत, संस्कृत एवं अपभ्रंश-भाषात्मक जैन-साहित्य में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं, जिनसे विदित होता है कि दक्षिण-पूर्व एशिया, पश्चिम-एशिया के द्वीप-नगरों और सम्भवतः योरुपीय देशों में जैन-सार्थवाह समुद्री मार्गों से जाकर क्रय-विक्रय के कार्यों के साथ-साथ श्रमण-संस्कृति का प्रचारप्रसार किया करते थे। उत्तराध्ययन-सूत्र की सुखबोधा-टीका में वर्णित सार्थवाह-अचल की पारस-कुल (Persian Gulf Countries) की व्यापारिक-यात्रा, भारतीय आर्थिक जीवन का श्रेष्ठ उदाहरण है, जिसके माध्यम से कर (Tar) चोरी की चर्चा तथा उसमें पकड़े जाने पर कठोर दण्ड की चर्चा भी की गई है। संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश में उपलब्ध महासार्थवाह श्रीपाल, भविष्यदत्त एवं बन्धुदत्त, जिनेन्द्रदत्त तथा साहू नट्टल द्वारा समुद्री-मार्ग से विदेश की व्यापारिक यात्राओं के वर्णन उपलब्ध हैं। इस माध्यम से कवियों ने समुद्री-विशाल पोतों, उनके निर्माण तथा उत्तुंग-दीप-स्तम्भ, यात्रा-प्रसंगों में समुद्री-डाकुओं के आतंकों तथा उनसे सुरक्षा हेतु कड़े प्रबन्ध, भोजन-सामग्री-व्यवस्था, चिकित्सा-सामग्री, मनोरंजन के साधन, प्रशिक्षित कुशल पोत-संचालक आदि की भी रोचक चर्चाएँ की हैं। इस साहित्य में व्यापारिक सामग्रियों के नामों के उल्लेख तो नहीं मिलते, लेकिन समकालीन भारतीय इतिहास के अध्ययन से विदित होता है कि उस समय काली-मिर्च, लौंग तथा सुपारी का उत्पादन भारत में प्रचुर मात्रा में होता था। उक्त सार्थवाह विदेशों में विक्रयार्थ इन सामग्रियों को ले जाते होंगे और वहाँ से बदले में सोना, हीरा, मोती, माणिक्य आदि ले आते होंगे। काली-मिर्च एवं लौंग तो पारसकुल एवं अन्य द्वीपान्तरों में इतनी लोकप्रिय हो गई थी कि वहाँ के लोगों ने कालीमिर्च का नाम अपनी बोली में "यवनप्रिया" तथा लौंग का नाम "कृष्णकली" ही रख लिया था। यह घटना इतिहास-प्रसिद्ध है कि रोम (इटली) में काली मिर्च की लोकप्रियता जैन यात्रा-साहित्य :: 85 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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