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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्भव नहीं, क्योंकि उसी से वहाँ के आचार-विचार, रहन-सहन, भोजन-पान, वस्त्राभूषणप्रकार, उनकी दैनिक-चर्या आदि का ज्ञान प्राप्त कर स्वयं के सामाजिक जीवन के वैशिष्ट्य का अनुभव किया जा सकता है। . देश-विदेश में राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक सम्बन्ध बढ़ाने की दृष्टि से भी यात्राएँ आवश्यक मानी गई हैं। प्राचीन भारतीय, यूनानी एवं चीनी साहित्य में उपलब्ध यात्रा-वृत्तान्त हमारे समाज एवं राष्ट्र के तत्कालीन इतिहास को आलोकित करने में सहायक सिद्ध हुए हैं। इस प्रसंग में यह विशेष रूप से ध्यातव्य है कि प्राच्य भारतीय इतिहास से वीर पराक्रमी-मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त (प्रथम) का नाम विस्मृत अथवा लुप्त हो गया था, जब कि उसकी आदर्श प्रशासनिक व्यवस्था से प्रभावित होकर यूनानी शासक ने उसका अध्ययन करने हेतु मेगास्थनीज को अपने राजदूत के रूप में पाटलिपुत्र भेजा था। मेगास्थनीज ने अपने यात्रा-वृत्तान्त-"इण्डिका" में उसी भारतीय शासक "सैण्ड्रोकोट्टोस" की पर्याप्त प्रशंसा की थी। अध्ययन करने पर बाद में विदित हुआ कि उक्त चन्द्रगुप्त ही यूनानी-भाषा में "सैण्ड्रोकोट्टोस" लिखा गया था। इस उल्लेख ने प्राच्य भारतीय इतिहास के लेखन में बड़ी सहायता प्रदान की। जैन-वाङ्मय में उपलब्ध यात्रा-वृत्तान्तों को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है - 1. दिग्विजय-यात्रा, 2. युद्ध-यात्रा, 3. व्यापार-यात्रा, 4. ज्ञान-यात्रा (शास्त्रार्थयात्रा), 5. धर्म-यात्रा, 6. मनोरंजन-यात्रा एवं 7. तीर्थ-यात्रा। 1. दिग्विजय-यात्रा- यह यात्रा सामान्य कोटि के राजा-पद से चक्रवर्ती सम्राट का पद प्राप्त करने के लिए की जाती थी। इसमें पृथिवी के छहों खण्डों पर विजय प्राप्त करने के लिए दृढ़-संकल्पी राजा अपने बल, वीर्य, पुरुषार्थ एवं पराक्रम का अनुमान कर अपनी चतुरंगिणी-सेना को लेकर विजय प्राप्त करने हेतु निकलता था और यदि वह उसमें सफल हो जाता था, तो वह चक्रवर्ती सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित होता था। इस पद के प्राप्त होते ही बत्तीस हजार राजा उसके सेवक के रूप में आज्ञा का पालन करते थे। जैन-वाङ्मय में ऐसे चक्रवर्ती सम्राटों में चक्रवर्ती-भरत (ऋषभपुत्र) तथा चक्रवर्ती सम्राट् खारवेल के नाम प्रमुख हैं। चक्रवर्ती भरत के विशेष प्रभाव तथा अपूर्व समृद्धि का विस्तृत वर्णन आदिपुराण (जिनसेन द्वितीय, नौवीं सदी ईस्वी) में दृष्टव्य है। चक्रवर्ती सम्राट खारवेल (ई. पू. दूसरी सदी) के प्रभाव तथा समृद्धि-वर्णन के लिए हाथीगुम्फा-शिलालेख (भुवनेश्वर, उड़ीसा) का अध्ययन आवश्यक है। 2. युद्ध-यात्रा- युद्ध-यात्रा वस्तुतः दिग्विजय जैसी यात्रा ही है, किन्तु उसमें अन्तर यही है कि दिग्विजय का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत होता है एवं चारों दिशाओं के राजामहाराजाओं के साथ लगातार किये गए सफल युद्धों से सम्बन्ध रखता है। जबकि युद्ध 84 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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