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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उन्होंने उक्त स्थलों के अतिरिक्त और भी कहाँ-कहाँ की यात्राएँ कर शास्त्रार्थों में विजय का डंका पीटा था, उसकी चर्चा उन्होंने स्वयं ही अपनी एक रचना में इस प्रकार की है पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, पश्चान्मालवसिन्धुठक्कविषये कांचीपुरे वैदिशे। प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटम्, वादार्थी विचराम्यहम्नरपतेः शार्दूलविक्रीडितम् ।। अर्थात् हे राजन्, मैंने पहले पाटलिपुत्र नगर के मध्य में शास्त्रार्थ की भेरी बजायी थी। पुनः मालव, सिन्ध, ढक्क-विषय, कांचीपुर और विदिशा में। तत्पश्चात् महान् विद्याविदों के नगर करहाटक-नगर आया। इस प्रकार हे राजन्, मैं शास्त्रार्थ-हेतु सिंह के समान यत्रतत्र विचरण करता रहता हूँ।" आचार्य समन्तभद्र ने अपने आत्म-विश्वास से परिपूर्ण बहुआयामी पाण्डित्य के गौरव का परिचय अपनी एक अन्य रचना में इस प्रकार दिया है आचार्योऽहं कविरहमहं वादिराट् पण्डितोऽहम्, दैवज्ञोऽहं भिषगहमहं मान्त्रिकस्तान्त्रिकोऽहम् । राजन्नस्यां जलधिवलयामेखलायामिलायाहम्, आज्ञासिद्धः किमिति बहुना सिद्धसारस्वतोऽहम् ।। अर्थात् हे राजन्, मैं एक आचार्य-कवि हूँ, शास्त्रार्थियों में श्रेष्ठ तथा पण्डित, ज्योतिषी, वैद्य, मान्त्रिक और तान्त्रिक हूँ। अधिक क्या कहूँ? इस सम्पूर्ण पृथिवी पर आज्ञासिद्ध और सिद्ध-सारस्वत हूँ मैं। आत्म-परिचय का ऐसा रोचक उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। विप्र कुलोत्पन्न आचार्य सिद्धसेन-दिवाकर जैन-न्याय-तर्कशास्त्रियों में अग्रगण्य दार्शनिक के रूप में विख्यात हैं। प्रारम्भ से ही उनका संस्कृत-भाषा पर असाधारण अधिकार था और स्वभावत: थे वे अत्यन्त गर्वीले, साथ ही शास्त्रार्थ के अत्यन्त शौकीन। शास्त्रार्थ कर वे पण्डितों को पराजित करने हेतु सदैव दूर्वादल एवं डण्डा लेकर यात्राएँ करते रहते थे और पराजित-पण्डित के मुँह में दूर्वादल खिलाकर ही आगे बढ़ते थे। उनकी इन विजय-यात्राओं ने पण्डितों को भयग्रस्त कर दिया था। ___एक बार उन्हें जानकारी मिली कि वृद्धवादी-क्षमाश्रमण जैन-दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान हैं। अत: वे यात्रा करते-करते जब उनके नगर में जा पहुँचे, तभी उन्हें पता लगा कि वे वहाँ से विहार कर चुके हैं। सिद्धसेन ने सोचा कि वे उनके पाण्डित्य से डरकर ही वहाँ से भाग गये हैं। अत: उनका पीछा किया और चलते-चलते एक गहन-वन में उनसे सामना हो गया और वहीं पर उन्होंने शास्त्रार्थ के लिए चुनौती भी दे डाली। जैन यात्रा-साहित्य :: 87 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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