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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रशंसा की है। उसकी इतनी अधिक ख्याति से ईर्ष्यालु होकर शैव कवि सेक्किळार ने पेरियपुराण की रचना की थी। किन्तु उसकी रचना चिन्तामणि की लोकप्रियता को दबा नहीं सकी। सेक्किळार ने अपने पेरियपुराण में चिन्तामणि की जो प्रशंसा की है, उससे पता चलता है कि उसके समय में चिन्तामणि की कितनी प्रतिष्ठा थी। 'पेरियपुराण' चोलनरेश कुलोत्तुंग की प्रार्थना पर रचा गया था। कुलोत्तुंग का राज्य-काल ई. 1080 से 1118 है। अतएव इससे पहले 'जीवकचिन्तामणि' रचा गया था। इसकी वर्णित कथा भी बड़ी मनोरम और शिक्षाप्रद है। नच्चिनारक्किनियर की टीका के साथ यह मुद्रित हो चुका है। इसमें 30 लम्ब और 3145 पद्य हैं। नरिविरुत्तम् ___ तिरुतक्क देव की एक और उल्लेखनीय रचना है। उसका नाम 'नरिविरुत्तम्' है। इसमें केवल 50 पद्य हैं। और सम्भवतया 'हितोपदेश' का एक कथा के आधार पर जैनधर्म के कुछ सर्वोत्तम सिद्धान्तों को निबद्ध किया है। शैली बड़ी मनोरम है, बाल और वृद्ध दोनों के ही लिए आकर्षक है। कवि ने मनुष्य की इच्छाओं को अस्थिर और सम्पत्ति तथा सांसारिक सुख को क्षणभंगुर बतलाया है। कथा संक्षेप में इस प्रकार एक बार एक जंगली हाथी खेत में उपज को कुचल रहा था। एक शिकारी उसे मारना चाहता था। एक ऊँची भूमि पर खड़ा होकर उसने हाथी पर बाण से प्रहार किया। उस भूमि के नीचे सर्पो के बिल थे। उधर हाथी मरा, इधर सर्प ने शिकारी को डस लिया। शिकारी ने साँप के दो टुकड़े कर दिये और सर्प के जहर से मर गया। एक स्यार यह सब देखता था। वह झाड़ियों से निकलकर उस स्थान पर आया और प्रसन्नतापूर्वक बोला-यह हाथी का शरीर छह मास के लिए पर्याप्त है। शिकारी से भी सात दिन का काम चल सकता है। सर्प एक दिन के लिए ही होगा। ऐसा अपने मन में कहते हुए वह शिकारी के पास गया। उसकी दृष्टि धनुष पर पड़ी। ज्यों ही उसने धनुष की ताँत में मुँह मारा कि धनुष टूटकर उसके मुँह में बड़ी जोर से लगा। तत्काल उसका प्राणान्त हो गया। इस कहानी के द्वारा जिस सत्य का प्रतिपादन किया गया है, वह स्पष्ट है। नीलकेशि इसके रचयिता के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। यह भारतीय दर्शन से सम्बद्ध एक तर्कपूर्ण ग्रन्थ है। और इस पर वामनमुनि रचित एक समयदिवाकर नाम की उत्कृष्ट टीका है। यह वामनमुनि वे ही हैं, जो साहित्यिक ग्रन्थ मेरु मन्दिरपुराण के भी रचयिता हैं। __ ऐसा प्रतीत होता है कि नीलकेशि की रचना बौद्ध ग्रन्थ 'कण्डलकेशि' के प्रतिवाद 822 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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