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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के लिए की गयी थी। कुण्डलकेशि के दार्शनिक विचारों का खण्डन करना ही उसका उद्देश्य है। उसकी कथा भी कुण्डलकेशि के ही साँचे में ढली हुई है। वह कोई पौराणिक कथा नहीं है, किन्तु दार्शनिक विवाद की भूमिका निर्माण करने के लिए ही सम्भवतः उसकी कल्पना की गयी है। कथा का सम्बन्ध जिस देश से है, उसकी राजधानी है-पुण्ड्रवर्धन। उसके बाहर काली का एक मन्दिर है। वहाँ एक दिन कुछ नागरिक बलिदान के लिए कुछ पशु-पक्षी लाते हैं। उस मन्दिर के समीप विद्यमान मुनिचन्द्र नाम के योगी उन्हें पशु-बलिदान से रोकते हैं और कहते हैं कि यदि तुम पशु-पक्षियों की मिट्टी से बनी मूर्तियों को काली के मन्दिर में चढ़ाओगे तो देवी पूर्ण सन्तुष्ट होगी और तुम बहुत-से प्राणियों के घात के पाप से भी बचोगे। लोगों को तो यह बात पसन्द आयी, किन्तु कालीदेवी अत्यन्त क्रुद्ध हुई। उसने चाहा कि मैं इस जैन मुनि को यहाँ से भगा दूँ, जिससे वे बलिदान में बाधा न डाल सकें। मुनिजी की आध्यात्मिक शक्ति के सामने अपने को हीन अनुभव करके कालीदेवी अपनी अधिष्ठात्री देवी नीलकेशि की खोज में निकली और उससे अपना कष्ट निवेदन किया। नीलकेशि ने पुण्ड्रवर्धन नगर में पधारकर मुनि को भयभीत करने के अनेक उपाय किये, किन्तु मुनि विचलित नहीं हुए। तब नीलकेशि ने उस देश की सुन्दरी राजकुमारी का रूप धारण करके अपनी शृंगारिक चेष्टाओं से मुनि को विचलित करना चाहा, किन्तु मुनि ने स्वयं ही उसके इस बनावटी रूप का पर्दाफाश कर दिया। तब तो नीलकेशि ने मुनिराज से प्रभावित होकर अपना अपराध स्वीकार किया और क्षमा माँगी। मुनिराज के क्षमादान करने पर नीलकेशि ने कृतज्ञतावश पवित्र जीवन बिताने की इच्छा प्रकट की। तब मुनिराज ने उसे अहिंसा धर्म का उपदेश देकर उस प्रदेश में अहिंसा धर्म का प्रचार करने का आदेश दिया। नीलकेशि ने इसे स्वीकार किया और मनुष्य रूप को धारण करके अहिंसा धर्म के प्रचार में अपना समय लगाया। यही विषय इस ग्रन्थ के 'धर्मन् उरैचउक्कम्' नाम के प्रथम अध्याय में वर्णित है। इस ग्रन्थ में आत्मतत्त्व और अहिंसा तत्त्व के आधार पर मृत्यु के अनन्तर भी मानवीय तत्त्व का अवस्थान और अहिंसामूलक धर्म की प्रधानता को सिद्ध किया गया यह ग्रन्थ तमिल साहित्य के प्राचीन काव्य ग्रन्थों में से है। इसमें कुल 894 पद्य हैं। प्रो. चक्रवर्ती ने इसे सम्पादित करके प्रकाशित किया था। यह तमिल साहित्य के विद्यार्थियों के लिए भी बड़ा उपयोगी है। इससे व्याकरण तथा मुहावरे के कितने ही प्रयोग और प्राचीन शब्द प्रकाश में आते हैं। अतः इस ग्रन्थ में कुरल और नालडियार के उल्लेख पाये जाते हैं, अतः यह ग्रन्थ उनके बाद की कृति होना चाहिए। यशोधरकाव्य __इसके रचयिता कोई जैन मुनि थे। उनके सम्बन्ध में अन्य कुछ भी ज्ञात नहीं है। इसकी कथा संस्कृत भाषा के यशस्तिलक चम्पू, यशोधरचरित आदि में वर्णित है। टी. तमिल जैन साहित्य :: 823 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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