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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कुण्डलकेशि और मणिमेखलै । इनमें से प्रथम तीन जैन लेखकों की कृति हैं और शेष दो बौद्ध विद्वानों की कृति हैं। इन पाँच महाकाव्यों में तीन ही उपलब्ध हैं, वलयापति तथा कुण्डलकेशि अनुपलब्ध हैं। टीकाकारों के द्वारा यहाँ-वहाँ उद्धृत पद्यों के सिवाय इन ग्रन्थों के सम्बन्ध में कुछ भी विदित नहीं है। प्रकीर्णक रूप में प्राप्त कतिपय पद्यों से यह स्पष्ट है कि वलयापति जैन ग्रन्थकार के द्वारा रचित था । इसी प्रकार बौद्धग्रन्थ कुण्डलकेशि के सम्बन्ध में भी कुछ ज्ञात नहीं है। नीलकेशि ग्रन्थ में उद्धृत पद्यों से यह स्पष्ट है कि कुण्डलकेशि एक दार्शनिक ग्रन्थ था, जिसमें वैदिक तथा जैनदर्शन का खण्डन करके बौद्ध दर्शन को प्रतिष्ठित करने की कोशिश की गयी थी । अवशिष्ट तीन ग्रन्थों में बौद्ध ग्रन्थ मणिमेखलै की कथा का सम्बन्ध शिलप्पदिकारम् से है, जो स्पष्टतया जैन ग्रन्थ है । शिलप्पदिकारम् यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तमिल ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ के रचयिता ल्लंगोबाडिगल् चेर नरेश चेरलादन के लघुपुत्र थे । ल्लंगोबाडिगल् चेरलादन के पश्चात् होनेवाले नरेश शेनगुटुवन का छोटा भाई था। इसी से उसका नाम ल्लंगोबाडिगल् अर्थात् छोटा युवराज था। वह जैन मुनि हो गये थे । इस ग्रन्थ में वर्णित कथा का सम्बन्ध नगर पुहार कावेरी पुमपट्टण के - जो चोल राज्य की राजधानी थी- महान् वणिक् परिवार से है। कण्णकी नाम की नायिका इसी वैश्यवंश की थी। वह अपने शील और पतिभक्ति के लिए प्रख्यात थी । चूँकि इस कथा में पाण्ड्य राज्य की राजधानी मदुरा में नूपुर अथवा शिलम्बु बेचने का प्रसंग है, इसलिए यह दुःखान्त रचना शिलम्बु महाकाव्य कही जाती है। इस कथा का सम्बन्ध तीन महाराज्यों से है। अतः इसका लेखक, जो चेर युवराज है, पुहार, मदुरा तथा वनजी नाम की तीन राजधानियों का वर्णन विस्तार से करता है । अस्तु ! चिन्तामणि तमिल जैन ग्रन्थों में चिन्तामणि निःसन्देह सर्वोत्कृष्ट है। उसका रचयिता तिरुतक्क देव संस्कृत का एक प्रमुख विद्वान् था । उसके इस ग्रन्थ में संस्कृत में जो कुछ सर्वोत्तम है, वह तो संगृहीत है ही; किन्तु संगमकालीन कविताओं का स्तर भी उसमें दिया है । उसके साथ ही जैनधर्म के मुख्य सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन किया है। इसमें राजा जीवक का पूरा जीवनवृत्तान्त और उसके विविध जीवन-प्रसंगों के अवसर का लाभ उठाकर अनेक धार्मिक उपदेश दिए गये हैं । संस्कृत के गद्यकाव्य चिन्तामणि तथा क्षत्रचूड़ामणि में भी जीवक या जीवन्धर का चरित वर्णित है। दोनों संस्कृत रचनाएँ वादीभसिंहकृत हैं । इन्हीं को तमिल 'जीवकचिन्तामणि' का आधार माना जाता है । 'चिन्तामणि' तमिल साहित्य का 'मास्टर पीस' है । शैव विद्वानों तक ने उसकी तमिल जैन साहित्य :: 821 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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