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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संस्कृति का भी हाथ रहा है। तीर्थंकर ऋषभदेव के एक पुत्र का नाम भी द्रविड़ था। विद्वानों ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि सिन्धु हड़प्पा सभ्यता की लिपि से प्रभावित रही है। दैनिक भास्कर के 26 जून 2010 अंक में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार विश्व शास्त्रीय तमिल सम्मेलन, चेन्नई में भारतीय प्राचीन सभ्यता के जाने माने प्रसिद्ध विद्वान अश्ने पारपोला ने सम्मेलन में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो सभ्यताओं में पुराने तमिल शब्दों के सम्भावित उपयोग के विश्लेषण पर आधारित विस्तृत दस्तावेज प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि सिन्धु लिपि की मूलभूत आदि-भाषा द्रविड़ थी। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मुहरों में मिले कुछ चित्रात्मक अंकन तमिल भाषा के मुरुका और मिन जैसे पुराने शब्दों से मिलती है। इससे सिन्धु लिपि की मूलभाषा की तह तक जाने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। तमिल भाषा के आद्य ग्रन्थों में जैन ग्रन्थ अधिक हैं। कन्नड़ साहित्य की भी यही स्थिति है। हड़प्पा सभ्यता का पतन हो जाने के कारण यहाँ की प्रजा का जीवन आपदा के रूप में सामान्य हो गया। चरागाह संस्कृति या ग्रामीण संस्कृति का चित्रण ऋग्वेद में इसी अवस्थाय का चित्रण कहा जा सकता है। प्राकृतिक विपदाओं के कारण हड़प्पा की विकसित नगरीय सभ्यता छिन्न-भिन्न हो गई। श्रमण और वैदिक दोनों समाजों की स्थिति समान थी। इस विपन्न अवस्था में ऋषियों ने साधना की, त्याग-तपस्या की और हड़प्पा सभ्यता का आधार लेकर ऋग्वेद की रचना की। उसमें तात्कालिक भावनाओं और विचारों का उद्भावन हुआ, जिसमें जैन श्रमण और वैदिक विचारधाराओं का संकलन हुआ है। इस समय तक आर्यावर्त की कल्पना आ चुकी थी, सौराष्ट्र और कुरुक्षेत्र आर्यवर्म्य क्षेत्र माना जाने लगा था, जहाँ जैनधर्म का प्रचार-प्रसार था। वही स्थिति पूर्व में बिहार की भी हो गई थी। इसे हम हड़प्पा के पतन के बाद की स्थिति कह सकते हैं। हड़प्पा की सभ्यता और वस्तुत: जैनों सभ्यता व संस्कृति थी। हड़प्पा में प्राप्त 13 प्रस्तर मूर्तियों में से दो मूर्तियों की कला-सम्बन्धी मान्यता ने क्रान्ति ला दी है। ये मूर्तियाँ लगभग 4 इंच की हैं। कबन्ध, शिर, हाथ, पैर-विहीन ग्रीवा और कन्धों के स्थान पर पृथक् बने हुए शिर और बाहु धारण करने के रन्ध्र बने हुए हैं। इस कायोत्सर्गी दिगम्बर मूर्ति में सजीवता, आत्मशक्ति की तेजस्विता देखते ही बनती है। दूसरी मूर्ति बाह्य स्पन्दन को प्रकाशित करती है। इसका समय लगभग 2000 ई. पू. है। इसे जैन तीर्थंकर की मूर्ति कहने में किसी को संकोच नहीं होना चाहिए। इसकी तुलना में मोहनजोदड़ो में प्राप्त ई. पू. तीसरी शताब्दी की उस उत्कीर्ण मुहर (सील नं. 620/1928-1929) का अध्ययन किया जा सकता है, जिस पर गेंडा, भैंस, सिंह आदि मूर्तियों के समक्ष ध्यानस्थ बैठे तीर्थंकर ऋषभदेव की मूर्ति ऊर्ध्वमुखी प्रेरणा को व्यक्त करती है। इसमें चक्रवर्ती भरत नत-मस्तक है, पीछे ऋषभ (बैल) का चिह्न 74 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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