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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आक्रमण की बात कही, हड़प्पा सभ्यता को आर्येतर सिद्ध करने का प्रयत्न किया। आर्यों को आक्रमक बताया । आक्रमण के मिथक को स्वीकार कर और ऋग्वैदिक समाज को बर्बर सिद्ध किया | इसके साथ ही आचार-निष्ठ- ज्ञान का भी उतना ही महत्त्व है। उसके बिना समाज पंगु बना रहता है। जैनधर्म की आचार संहिता, नैतिक चेतना, सामुदायिक चेतना, शिष्टाचार इतना अधिक समृद्ध रहा है कि व्यापारिक गतिविधियाँ, सांस्कृतिक चेतना, शिक्षा - तन्त्र सदैव विकसित होता रहा और लगभग 12वीं शताब्दी तक चतुर्मुखी समृद्धि के सोपानों पर चढ़ता रहा । आर्य आक्रमण का मिथक भाषागत समानता के आधार पर यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि आर्यजनों का सम्बन्ध भारत से लेकर यूरोप के मध्य तक के क्षेत्र में कहीं भी रहा हो सकता है, आर्य शब्द भले ही प्रारम्भिक अवस्था में जाति के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ हो, पर उत्तरकाल में वह एक समुदाय के रूप में अवश्य जाना जाता रहा है और फिर उसने एक आक्रमणकारी कबीला का रूप ग्रहण कर लिया और पराजित समुदाय को 'दास' के रूप में गिनने लगा । उनकी भाषा कदाचित् संस्कृत थी, जिसे आर्य भाषा कहा जाने लगा। आर्य का अर्थ मूलतः सम्मानास्पद था । बाद में पाणिनि के अनुसार उसका प्रयोग वैश्य वर्ग के लिए होने लगा ( 26.2 ) । कृषि - संपदा, पशु-पालन एवं वाणिज्य पर वैश्यों का ही अधिकार था । इसलिए उन्हें श्रेष्ठी या महाजन भी कहा जाता रहा है। आर्थिक आधार पर उन्हें समाज का मुख्य अंग कहा जाता था । यह वैश्य वर्ग वणिक वर्ग निश्चित रूप से जैन वर्ग रहा होना चाहिए। वह वर्ग व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ा था, अहिंसक था, आक्रमणकारी नहीं था । कथा साहित्य से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। कि प्रारम्भिक चरण में पणि जैसी जातियाँ कबीले के रूप में रहकर वणिक्वृत्ति में आपदमग्न थीं, मध्यकाल में वही जातियाँ स्थिर होकर व्यापार करने लगती हैं । हड़प्पा सभ्यता का सम्पर्क व्यापारिक कारणों से बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सोवियत मध्य एशिया, सुमेरिया, मेसोपोटामिया, बेबीलोनिया और अक्काट आदि से भी रहा है। यही कारण है कि संस्कृत - प्राकृत भाषाओं का प्रसार वहाँ हुआ है। विदेशी विद्वानों ने इसी को विपरीत रूप में दिखाकर आक्रामक मिथक तैयार किया है और वहाँ आर्यों को भारत के विभिन्न मार्गों से पहुँचाया है। एशिया माइनर में कुछ हित्ती मुहरों पर ककुद्मान वृषभ की आकृति अंकित मिलती है। हड़प्पा सभ्यता का यह प्रसार क्षेत्र कहा जा सकता है। इसका समय लगभग 2500 ई.पू. होना चाहिए । यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि हड़प्पा सभ्यता के निर्माण में तमिल या द्रविड़ श्रमण जैन संस्कृति और पुरातत्त्व :: 73 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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