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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है । त्रिशूल रत्नत्रय का प्रतीक है, कल्पवृक्ष और मृदु लता भी उत्कीर्ण है । टी. एन रामचन्द्रन का विचार है कि ये उद्धरण और हड़प्पा की कायोत्सर्गी दिगम्बर मूर्ति जैन तीर्थंकर से सम्बद्ध है। उसे वे कायोत्सर्ग मुद्रा में देखते हैं, जो समस्त भौतिक चेतना के आन्तरिक व्युत्सर्ग का प्रतीक है (सील नं. 620 / 1928-9, हड़प्पा ऐंड जैनिज्म) । उनकी दृष्टि में तीर्थंकर की काल-गणना में भी इससे कोई बाधा नहीं आती। उन्होंने ऋषभदेव का काल ई. पू. की तृतीय सहस्राब्दी का अन्तिम चरण रखा है, पर हम इससे सहमत नहीं है। हमने ऋषभदेव तीर्थंकर का समय पुरातत्त्व की दृष्टि से लगभग तीस हजार वर्ष ई. पू. निश्चित किया है। हमारा यह लेख प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार में प्रकाशित हो चुका है। मोहनजोदड़ो हड़प्पा सभ्यता का प्रसार शताधिक पुरास्थलों में देखा गया है। सिन्धु - हड़प्पा सभ्यता के मूल निवासी कौन थे, यह एक विवादास्पद प्रश्न है, पर यह निश्चित है कि यह सभ्यता प्राग्वैदिक या उसके समकालीन है। पी. आर. देशमुख ने अपने ग्रन्थ 'इंडस सिविलायजेशन ऐंड हिन्दू कल्चर (पृ. 364-67)' में इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि यह सभ्यता तत्कालीन विद्याधर वा द्रविड़ जाति से सम्बद्ध रही हो । यह जाति ऋषभदेव को पूज्य मानती थी तथा उन्हें दिगम्बर योगीश्वर के रूप में स्वीकार करती थी। रामप्रसाद चन्दन और इरवाथम महादेवन् का भी यही विचार है। ऋग्वेद में ऋषभदेव से सम्बद्ध अनेक उद्धरण मिलते ही हैं। लोहानीपुर की भी अधकटे हस्त और मस्तक - विहीन कायोत्सर्गी दिगम्बर मूर्ति हड़प्पा से प्राप्त मूर्ति की अनुकृति ही लगती है । इसमें कुछ विकासात्मक चिह्न अवश्य दिखाई देते हैं, पर भव्यता और दिव्यता में कोई अन्तर नहीं है । इसमें रन्ध्र अवश्य नहीं हैं । स्थापत्य - मन्दिर कला स्थापत्य कला की चरम परिणति मन्दिरों के निर्माण में होती है। इस क्षेत्र में तीन शैलियों का उपयोग किया गया है- नागर, वेसर और द्रविड़ (नागर शैली में गर्भगृह चतुष्कोणी रहते हैं और उनके ऊपर झुकी रेखाओं से संयुक्त इसके समान शिखर रहता है । इसे शुकनासा शिखर भी कहा जाता है, क्योंकि उसका आकार तोते की चोंच के समान गोलाकार और नुकीला होता है। इनका प्रचलन दक्षिण में तो कम रहा पर पंजाब, हिमालय, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, बंगाल आदि प्रदेशों में अधिक हुआ । इसमें गोलाकार शिखर पर कलश लगा हुआ रहता है । वेसर शेली में शिखर की आकृति वर्तुलाकार होती है और वह ऊपर उठकर चपटी रह जाती है। मध्य भारत में इसका प्रयोग अधिक हुआ है। द्रविड़ शैली में मन्दिर स्तम्भ की आकृति ग्रहण करता है और ऊपर सिकुड़ता श्रमण जैन संस्कृति और पुरातत्त्व :: 75 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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