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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धारक विशुद्ध-नाद शुद्ध सत्त्व सज्जनों के पवित्र शरीर में उत्पन्न होता है। इस उत्तम नाद की जय हो। जैनाचार्य पार्श्वदेव कृत संगीत-समयसार को पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि प्राचीन युग में जैन साधुओं को विविध कलाओं का विशिष्ट ज्ञान था और इन्होंने इनका मननचिन्तन एवं आलोडन करने के बाद मौलिक विश्लेषण किया था। साथ ही उन्हें काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र, संगीतशास्त्र के गूढ एवं सूक्ष्म सिद्धान्तों एवं उनके प्रयोग का अद्भुत परिज्ञान था। __इधर 20वीं सदी में श्रमण जैन भजन प्रचारक संघ ने सन 1970 में 'सुसंगीत जैन पत्रिका' का प्रकाशन किया। इसमें जैन संगीत को लेकर बड़ी मौलिक और खोजपूर्ण सामग्री है। वास्तव में जैन संगीत को लेकर इतना अच्छा संकलन अब तक देखने में नहीं आया। इसके कई लेख अनुसन्धान की निधि हैं- ऐसा तीर्थकर के सम्पादक डॉ. नेमिचन्द जी मानते हैं। डॉ. श्रीमती हेम भटनागर ने श्रृंगार युग में संगीत-काव्य विषय पर अपने शोधप्रबन्ध में निष्कर्ष रूप में जैन राग-मालाओं की चर्चा की है। उनका कथन है कि जैन मुनि संगीत का ज्ञान भी अधिक मात्रा में रखते थे। ऐसा उनके ग्रन्थों का अवलोकन करने से विदित होता है। जैसे मुनियों में राग-मालाएँ लिखने का बड़ा प्रचार था। कवि अपने तीर्थकर का यश वर्णन करते समय राग तथा रागिनियों में बाँधकर काव्य-रचना करते थे, इस प्रकार जैन कवियों की संगीत-प्रियता असन्दिग्ध है।। ___ कुल मिलाकर उपर्युक्त चर्चा से तथ्य ये उभरकर आते हैं कि जैनाचार्यों ने जहाँ भारतीय-संगीत के सिद्धान्त-पक्ष को संगीत-समयसार व संगीतोपनिषत्सारोद्धार आदि रचनाएँ रचकर समृद्ध किया, वहीं विभिन्न राग-रागिनियों में नये प्रयोगों को लाकर प्रयोग-पक्ष को भी नयी दिशाएँ दीं। सबसे बड़ी बात यह है कि जैन संगीत के इन महारथियों ने संगीत के विश्व- पटल पर अपनी अलग पहचान रखते हुए भी अपनी समन्वयात्मक दृष्टि से भारतीय-संगीत की श्री-वृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 712 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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