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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जिनमन्दिर एवं गृह-वास्तु पं. सनतकुमार विनोद कुमार जैन तीनों लोकों में जिन - मन्दिर की स्थिति अनादिकाल से है। जो रत्नचूर्ण, स्वर्ण, रजत, ईंट, पत्थर व काष्ठ आदि से निर्मित बताए गये हैं तथा जिनमें भगवत् सर्वज्ञ, वीतराग की प्रतिमाएँ रहती हैं, वे चैत्यालय अर्थात् जिनमन्दिर हैं। ये दो प्रकार के हैं- 1. कृत्रिम जिनालय, 2. अकृत्रिम जिनालय । कृत्रिम जिनालय जो देव, विद्याधर और मनुष्यों द्वारा बनवाए जाते हैं, ये कृत्रिम चैत्यालय मनुष्यलोक में ही होते हैं । अकृत्रिम जिनालय जो किसी के द्वारा बनवाए गये नहीं होते हैं, प्राकृतिक, शाश्वत और अनादिअनिधन होते हैं। ये अकृत्रिम चैत्यालय चारों प्रकार के देवों के भवन, प्रासाद व विमानों तथा स्थल - स्थल पर तीनों लोकों में विद्यमान हैं। मध्यलोक के तेरहद्वीपों में स्थित जिनचैत्यालय हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों आदि सभी के आवासीय परिसर में अकृत्रिम जिनालय हैं। इन सब की संख्या असंख्यात है । अकृत्रिम जिनालयों का विस्तार उत्तम, मध्यम, जघन्य के भेद से तीन प्रकार का है । उत्कृष्ट अवगाहना सौ योजन लम्बी, पचास योजन चौड़ी, पचहत्तर योजन ऊँची हैं। अकृत्रिम जिनालय शाश्वत हैं । कृत्रिम जिनालय भरतक्षेत्र, ऐरावतक्षेत्र में काल-परिवर्तन के कारण परिवर्तनीय हैं। भरतक्षेत्र में जिनमन्दिरों की ऐतिहासिकता जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी काल के सुषमा-दुषमा नामक तीसरे काल के चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष शेष रहने पर इन्द्र की आज्ञा से उत्साही देवों ने अयोध्या नगरी को बनाया था। कालान्तर में इन्द्र ने सर्वप्रथम जिनमन्दिर एवं गृह - वास्तु :: 713 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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