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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ने इस अनहद नाद का अनुभव वर्णन करते हुए लिखते हैं कि यह सर्वप्रथम समुद्र-गर्जन, मेघ-स्तनित, भेरी-रव, और झर्झर ध्वनि के समान सुनाई देता है। मध्य में मृदल, शंख, घंटा और काहल से उत्पन्न ध्वनि के समान शब्द की प्रतीति होती है और अन्त में किंकणि, वंशी, भ्रमर और वीणा के निक्वाण-जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती है। इस प्रकार नाना प्रकार के शब्द देह के भीतर ही सुनाई देते हैं। इस अनहद नाद के सुनने में तन्मय हुआ योगी साधक संसार के समस्त पौद्गलिक विषयों से अपने को सहज विमुक्त पाता है। जिस प्रकार पुष्प के मकरन्द रस का पान करने वाला भ्रमर उस पुष्प के गन्ध की अपेक्षा नहीं करता अथवा जैसे घास चरती हुई गाय को यव-समष्टि को देने वाली गोपाली के हाथों में रची हुई मेंहदी नहीं दिखती अथवा आहार ग्रहण करते हुए श्रमण-मुनि जिस प्रकार आहार देने वाले के मणि-कण्ठाभरणों से निरपेक्ष रहते हैं, वैसे ही शुद्ध-नाद में रमा चित्त विषयों की आकांक्षा नहीं करता। इस अनहद नाद को निरन्तर सुनते रहने से अपेक्षित ध्यान में एकाग्रता, निराकुलता और शान्ति का अनुभव होता है। जैन संगीत यह कहता है कि जरा यह चिन्तन करें कि कंठ, ओष्ठ, मूर्धा, तालु आदि प्रदेशों से उच्चरित होने वाली अक्षरात्मक ध्वनि कंठ से पहले कहाँ थी?... उत्तर मिलेगा हृदय प्रदेश में। हृदय से पहले कहाँ थी?कृकृक उत्तर मिलेगा मूलाधारं में या मूलाधार स्थित अग्नि वायु में और उससे पूर्व मन में और मन से पहले बुद्धि में और सबसे पहले आत्मा में। अनुसन्धान की वीथियों में प्रवेश करता हुआ चेतन अन्त में आत्मा को ही पा लेता है, यही नादोपासना का चरम प्रयोजन है। इस प्रकार जैनाचार्य विद्यानन्द जी तो यहाँ तक कहते हैं कि यह भी साफ है कि नाद की आरम्भिक साधना शब्द, गीत, लय, ताल, वाद्य आदि की अपेक्षा करती है। सोऽहं के पाठ को घोखना पड़ता है या उसका अनुनाद करना पड़ता है; परन्तु नाद के स्थूल रूप से सूक्ष्म की ओर चलते-चलते शब्द आदि का परिधान निष्प्रयोजन हो जाता है और तब यह नाद निर्ग्रन्थ अथवा दिगम्बर अथवा यथाजातरूपधर हो जाता है। शिशिर ऋतु में वृक्षों के पत्तों की तरह इसकें बाह्य उपकरण झर जाते हैं। शब्द-समुच्चय की निर्जरा हो जाती है और शुद्ध ओंकारमय नाद शेष रह जाता है और इस अवस्था में सम्पूर्ण पर-समयों का अन्त होता है, विशुद्ध स्व-समय की प्राप्ति होती है। यहाँ आने पर यह संगीत, यह नादोपासना समयसार का सार्थक विशेषण अर्जित कर लेती है। इसीलिए नाद का मूल-अनुसन्धान या मूल-प्रयोजन आत्मसन्निधि या आत्म-संवित् है। इसीलिए यह समयसार है, योगियों के द्वारा ध्येय है। जो नाद स्वयं सुशोभित होता है, वह स्वर कहलाता है। स्वर का अधिकरण पद है और वह अर्थ का प्रतिपादक है यथा- 'स्वयं यो राजते नादः स्वरः स परिकीर्तितः। पदं स्वराधिकरणमर्थस्य प्रतिपादकम्।।' और विशुद्ध-नाद का प्रभाव आश्चर्यजनक है। यह नाद परम-पद को देने वाला है। इससे परमदेव जिनेश्वर की आराधना होती है और केवल आराधना ही नहीं होती है, बल्कि परम-पद की प्राप्ति भी होती है। ऐसे उत्तम प्रभाव का संगीत :: 711 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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