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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से प्ररूपित वस्तु को स्वयं न पहिचाने, तब तक व्यवहार मार्ग से वस्तु का निश्चय करना चाहिए । अतः निचली दशा में अपने को व्यवहारनय कार्यकारी है, परन्तु व्यवहार को उपचार मानकर उसके द्वारा वस्तु को ठीक प्रकार समझे, तब तो कार्यकारी है, किन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहार को भी सत्यभूत मानकर 'इस प्रकार ही है' ऐसा श्रद्धान करे, तो उल्टा अकार्यकारी हो जाए । " समयसार ग्रन्थ की आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र देव लिखते हैं- “ एवं म्लेच्छस्थानीयत्वात् जगतः व्यवहार नयः अपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थ प्रतिपादकत्वात् उपन्यसनीयः। अथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्यः इति वचनात् व्यवहारनयः न अनुसर्तव्यः ।। " गाथा 8 टीका ।। अर्थात इस प्रकार म्लेच्छ के स्थानीय जगत को व्यवहारनय भी म्लेच्छभाषा स्थानीय होने के कारण परमार्थ का प्रतिपादक होने से कथन करने योग्य है । अतः ब्राह्मणों को म्लेच्छ नहीं हो जाना चाहिए, इस वचन से व्यवहार नय अनुसरण करने योग्य नहीं है । निष्कर्ष के रूप में कहें तो व्यवहार द्वारा प्रतिपादित निश्चय स्वरूप अनुसरण करने योग्य है, व्यवहार नहीं । इसी प्रकार चारों अनुयोगों के कथन को ठीक प्रकार से न समझने के कारण वस्तु के सत्यस्वरूप को नहीं समझ पाते हैं। अतः चारों अनुयोगों के व्याख्यान का विधान अच्छी तरह समझना चाहिए । चार अनुयोग जिनधर्म का उपदेश वर्तमान में मुख्य रूप से चार अनुयोगों के द्वारा किया गया है। वीतरागता के पोषण के लिए कथन करने की विधि को अनुयोग कहते हैं । वे अनुयोग चार हैं- 1. प्रथमानुयोग, 2. करणानुयोग, 3. चरणानुयोग, 4. द्रव्यानुयोग । 1. प्रथमानुयोग - जिनशास्त्रों में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र आदि महापुरुषों के चरित्र द्वारा पुण्य-पाप के फल का वर्णन किया जाता है और अन्ततः वीतरागता को हितकर बताया जाता है, उन्हें प्रथमानुयोग के शास्त्र कहते हैं । जैसे आदि पुराण, महापुराण, उत्तरपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि । 2. करणानुयोग - जिन शास्त्रों में अत्यन्त सूक्ष्म, केवलज्ञानगम्य गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि रूप जीव के भावों का तथा कर्मों और तीन लोकों का भूगोल सम्बन्धी वर्णन होता है, वे करणानुयोग के ग्रन्थ कहलाते हैं। इसमें गणित की मुख्यता रहती है; क्योंकि गणना और नाप का वर्णन होता है। जैसे- गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, लब्धिसार, त्रिलोकसार ग्रन्थ आदि । 3. चरणानुयोग - जिन शास्त्रों में गृहस्थ और मुनिराजों के आचरण सम्बन्धी नियमों का वर्णन होता है। इस अनुयोग में जैसे भी यह जीव पाप छोड़कर धर्म में लगे रागादि तीर्थंकर परम्परा, जिनागम और अनुयोग :: 65 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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