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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसी प्रकार परद्रव्य का निमित्त अर्थात् पर की ओर का लक्ष्य छुड़ाने के लिए व्रत, शील, संयमादि रूप व्यवहार को मोक्षमार्ग कहा, सो इन्हीं को मोक्षमार्ग नहीं मानना चाहिए; क्योंकि परद्रव्य का ग्रहण-त्याग आत्मा के हो, तो आत्मा परद्रव्य का कर्ताहर्ता हो जाए; परन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्य के अधीन तो है नहीं, जो आत्मा उन परद्रव्यों का ग्रहण-त्याग कर सके। आत्मा वास्तव में परद्रव्यों के ग्रहण त्याग की कल्पना ही करता है। यदि इन कल्पनाओं को छोड़े अर्थात् अपनी ज्ञानादि गुण युक्त सत्ता को अपनी समझे, तो इन कल्पनाओं का उद्भव ही न हो। इस प्रकार आत्मा अपने स्वभाव भाव के आश्रय से इन रागादि विभावों का त्यागकर वीतरागी होता है। निश्चय से वीतराग भाव ही मोक्षमार्ग है। इसीलिए कहा जाता है कि जब तक हम यह न पहचान पाएँ कि जिनवाणी में जो कथन है, उसमें कौन तो सत्यार्थ है और कौन समझाने के लिए व्यवहार से कहा गया है?... तब तक हम सबको एक-सा सत्यार्थ मानकर भ्रम रूप रहते हैं। उक्त कथन पर सीधे ही प्रश्न उपस्थित होता है कि तो फिर जिनवाणी में व्यवहार का कथन किया ही क्यों गया है? समाधान इस प्रकार है कि व्यवहार के बिना परमार्थ को समझाया ही नहीं जा सकता, अतः असत्यार्थ होने पर भी जिनवाणी में व्यवहार का कथन आता है। निश्चयनय से तो आत्मा परद्रव्यों से भिन्न, स्वभाव से अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है। इसे जो नहीं पहिचानते, उनसे इसी प्रकार कहते रहें तो वे समझ नहीं पायेंगे। अतः उन्हें समझाने के लिए व्यवहार से शरीरादिक परद्रव्यों की सापेक्षता द्वारा नरनारकादि रूप जीव के विशेष किए तथा मनुष्यजीव, नारकीजीव आदि रूप से जीव की पहिचान कराई। इसी प्रकार अभेदवस्तु में भेद उत्पन्न करके समझाया। जैसेजीव के ज्ञानादि गुण-पर्याय रूप भेद करके स्पष्ट किया; जाने सो जीव, देखे सो जीव। आचार्य कुन्दकुन्द देव ने कहा है जह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणादु गाहेऊं। तह ववहारेण विणा पर मत्थु वएसणमसक्कं ॥8॥ समयसार अर्थात् जिस प्रकार म्लेच्छ भाषा के बिना म्लेच्छों को समझाया नहीं जा सकता, उसी प्रकार व्यवहार के बिना व्यवहारी जनों को निश्चय का ज्ञान नहीं कराया जा सकता __इसलिए हमारा कर्तव्य है जहाँ निश्चय नय की मुख्यता से कथन हो उसे तो 'सत्यार्थ ऐसे ही है' ऐसा जानना और जहाँ व्यवहारनय की मुख्यता से कथन हो उसे "ऐसे है नहीं, निमित्त आदि की अपेक्षा उपचार किया है' ऐसा जानना। व्यवहार नय मात्र पर को उपदेश देने में ही कार्यकारी नहीं है। जब तक निश्चयनय 64 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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