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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से बचे और वीतरागता में वृद्धि करे, वैसे ही अनेक युक्तियों से कथन किया जाता है। इसमें सुभाषित, नीति शास्त्रों की पद्धति मुख्य है। इन ग्रन्थों में स्थूल बुद्धिगोचर कथन पाया जाता है। जैसे- मूलाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय आदि। 4. द्रव्यानुयोग-जिनशास्त्रों में षड् द्रव्य, पंचास्तिकाय, सप्ततत्त्व, नवपदार्थ आदि का तथा स्व-पर भेदविज्ञान आदि का वर्णन पाया जाता है, वे द्रव्यानुयोग के शास्त्र हैं। इनमें चरणानुयोग के समान बुद्धिगोचर कथन होता है; पर चरणानुयोग में बाह्यक्रिया की मुख्यता रहती है और द्रव्यानुयोग में आत्मस्वभाव व परिणामों की मुख्यता रहती है। द्रव्यानुयोग में न्याय शास्त्र की पद्धति मुख्य है, क्योंकि इसमें तत्त्वनिर्णय करने की मुख्यता है और निर्णय युक्ति व न्याय के बिना सम्भव नहीं होता। जैसे-पंचास्तिकाय संग्रह, समयसार, प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, न्याय दीपिका, परीक्षामुख, आप्तमीमांसा, परमात्मप्रकाश इत्यादि। __ 1. प्रथमानुयोग के व्याख्यान का विधान-प्रथमानुयोग में संसार की विचित्रता, पुण्य-पाप का फल, महापुरुषों की प्रवृत्ति आदि बताकर जीवों को धर्म में लगाया जाता है। प्रथमानुयोग में मूल कथाएँ तो जैसी की तैसी ही होती हैं, पर उनमें प्रसंग प्राप्त व्याख्यान कुछ ज्यौं-का-त्यौं और कुछ ग्रन्थकर्ता के विचारानुसार होता है, परन्तु प्रयोजन अन्यथा नहीं होता। जैसे तीर्थंकरों के कल्याणकों में इन्द्र आए, यह तो सत्य है, पर इन्द्र ने जैसी स्तुति की थी, वे शब्द हूबहू वैसे ही नहीं थे, अन्य थे। इसी प्रकार परस्पर किन्हीं के वार्तालाप हुआ था, सो उनके अक्षर तो अन्य निकले थे, ग्रन्थकर्ता ने अन्य कहे, पर प्रयोजन एक ही पोषते हैं। तथा कहीं-कहीं प्रसंगरूप कथाएँ भी ग्रन्थकर्ता अपने विचारानुसार लिखते हैं। जैसे-धर्मपरीक्षा में मूों की कथाएँ लिखीं, सो वही कथा मनोवेग ने कहीं थी, ऐसा नियम नहीं हैं, किन्तु मूर्खपने को पोषण करने वाली कही थीं। तथा प्रथमानुयोग में कोई धर्मबुद्धि से अनुचित कार्य करे, उसकी भी प्रशंसा करते हैं। जैसे-विष्णुकुमार जी ने धर्मानुराग से मुनिराजों का उपसर्ग दूर किया। मुनिपद छोड़कर यह कार्य करना योग्य नहीं था, परन्तु वात्सल्य अंग की प्रधानता से विष्णुकुमार जी की प्रशंसा की है। इस छल से औरों को ऊँचा धर्म छोड़ कर नीची प्रवृति अंगीकार करना योग्य नहीं है। ____पुत्रादिक की प्राप्ति के लिए अथवा रोग, कष्टादिक को दूर करने के लिए स्तुति, पूजनादि कार्य करना निकांक्षित अंग का अभाव होने से एवं निदान नामक आर्तध्यान होने से पापबन्ध का कारण है, किन्तु मोहित होकर बहुत पापबन्ध का कारण कुदेवादिक का सेवन तो नहीं किया, अत: उसकी प्रशंसा कर दी है। ऐसा छल कर औरों को लौकिक कार्यों के लिए धर्मसाधन करना युक्त नहीं है। 2. करणानुयोग के व्याख्यान का विधान-करणानुयोग में केवलज्ञानगम्य वस्तु का 66 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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