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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ग्रन्थ में दिया गया है-अंजन के निर्माण हेतु पुष्प भी इसी वन में मिलते हैं। • समन्तभद्र वैद्यक और रसविद्या में भी निपुण थे। उनके अनेक रसयोग प्रचलित हैं । समन्तभद्र से पूर्व भी अनेक जैन मुनियों ने वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी। समन्तभद्र ने अपने 'सिद्धान्तरसायनकल्प' ग्रन्थ में लिखा है __ 'श्रीमदभल्लातकाद्रौ वसति जिनमुनिः सूतवादे रसाब्जं' 10 अन्यत्र भी उन्होंने लिखा है-'रसेन्द्र जैनागमसूत्रबद्धं'। इससे जैन आगम में पूर्व से अनेक वैद्यक व रसवाद सम्बन्धी ग्रन्थ विद्यमान होना प्रमाणित होता है। वे सब रचनाएँ अब कालकवलित हो चुकी हैं। समन्तभद्र भी अच्छे चिकित्सक थे। उनके निम्न वैद्यक ग्रन्थों का पता चलता है, वर्तमान में ये ग्रन्थ अलभ्य हैं 1. अष्टांग-संग्रह 2. सिद्धान्तरसायनकल्प वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री के अनुसार इसमें अठारह हजार श्लोक होना बताया जाता है, परन्तु अब इसके कुछ वचन इधर-उधर विकीर्ण रूप से अन्य ग्रन्थों में उधत मिलते हैं। इनको एकत्रित करने पर उन श्लोकों की संख्या भी दो-तीन हजार तक पहुँच जाती है। इसमें आयुर्वेद के आठ अंगों-काय, बाल, ग्रह, ऊर्खाग, शल्य, दंष्ट्रा, जरा और विष का विवेचन था। ____ यह ग्रन्थ जैन आयुर्वेद के ग्रन्थों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। इसमें जैन सिद्धान्तानुसार विषयों का विवेचन है। श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रन्थ कल्याणकारक की रचना श्री समन्तभद्र द्वारा रचित अष्टांग युक्त ग्रन्थ सम्भवतः अष्टांग-संग्रह के आधार पर की थी, जैसा कि उनके निम्न कथन से स्पष्ट है अष्टांगमप्याखिलत्र समन्तभद्रैः प्रोक्तं सविस्तरवचो विभवैर्विशेषात्। संक्षेपतोनिगदितं तदिहात्मशक्त्या कल्याणकारकमशेषपदार्थयुक्तम् ।।" अर्थात् श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा अत्यन्त विस्तारपूर्वक वाणी वैभव से विशेषतः सम्पूर्ण अष्टांगयुक्त आयुर्वेद शास्त्र का कथन किया गया था। उसे ही अपनी शक्ति के अनुसार संक्षिप्त रूप से समस्त पदार्थों से युक्त यह कल्याणकारक मेरे द्वारा कहा गया है। __इसके अतिरिक्त आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित एक अन्य ग्रन्थ 'सिद्धान्तरसायनकल्प' की चर्चा श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने निम्न प्रकार से की है आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 629 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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