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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य समन्तभद्र हर-एक विषय में अद्वितीय विद्वत्ता को धारण करने वाले हुए। आपने न्याय, सिद्धान्त के विषय में जिस प्रकार प्रौढ़ प्रभुत्व को प्राप्त किया था, उसी प्रकार आयुर्वेद के विषय में भी अद्वितीय विद्वत्ता को प्राप्त किया था। आपके द्वारा सिद्धान्त रसायनकल्प नामक वैद्यक ग्रन्थ की रचना अठारह हजार श्लोक परिमित की गयी थी, परन्तु आज वह कीटों का भक्ष्य बन गया है। कहीं-कहीं पर उसके कुछ श्लोक मिलते हैं, जिनका संग्रह करने पर 2-3 हजार श्लोक सहज संगृहीत हो सकते हैं। अहिंसाधर्मप्रेमी आचार्य ने अपने ग्रन्थ में औषधयोग में पूर्ण अहिंसा-धर्म का ही समर्थन किया है। इसके अलावा आपके रचित ग्रन्थ में जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग एवं संकेत भी तदनुकूल दिये गये हैं। इसलिए अर्थ करते समय जैनमत की प्रक्रियाओं को ध्यान में रखकर अर्थ करना पड़ता है। उदाहरणार्थ 'रत्नत्रयौषध' का उल्लेख ग्रन्थ में आया है। इसका अर्थ वज्रादि रत्नत्रयों के द्वारा निर्मित औषधि ऐसा अर्थ सर्वसामान्य दृष्टि से प्रतीत होता है, किन्तु वैसा नहीं है। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय के नाम से जाना जाता है। वे जिस प्रकार मिथ्या दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप त्रिदोषों का नाश करते हैं, उसी प्रकार रस, गन्धक व पाषाण इन त्रिधातुओं का अमृतीकरण कर तैयार होने वाला रसायन वात, पित्त व कफ रूपी त्रिदोष को दूर करता है। अतएव उस रसायन का नाम 'रत्नत्रयौषध' रखा गया है। ___इसी प्रकार औषधि निर्माण के प्रमाण में भी जैनमत प्रक्रिया के अनुसार ही संकेत संख्याओं का विधान किया है। जैसे रससिन्दूर को तैयार करने के लिए कहा गया है कि "सूतं केसरि गन्धकं मृग नवासारं द्रुमं इत्यादि। यहाँ विचारणीय विषय यह है कि यह प्रमाण किस प्रकार लिया हुआ है? इसे समझने के लिए जैनधर्म की कुछ मूल बातों का ज्ञान आवश्यक है। जैसे जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर का एक चिह्न होता है, जिसे लांछन कहते हैं । जैसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का चिह्न वृषभ या बैल है तथा चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का चिह्न सिंह है। उसके अनुसार जिन तीर्थंकरों के चिह्न से प्रमाण का उल्लेख किया जाय उतनी ही संख्या में प्रमाण का ग्रहण करना चाहिए। उदाहरणार्थ, ऊपर के वाक्य में 'सूतं केसरि' पद आया है। यहाँ केसरि (सिंह) चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का चिह्न है, अत: केसरी शब्द से 24 संख्या का ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार 'गंधक मृग' यहाँ मृग सोलहवें तीर्थंकर का चिह्न होने से 16 संख्या का ग्रहण करना चाहिए। अभिप्रेतार्थ यह हुआ कि पारद 24 भाग प्रमाण और गन्धक 16 भाग प्रमाण इत्यादि प्रकार से अर्थ ग्रहण करना चाहिए। समन्तभद्र के ग्रन्थ में सर्वत्र इसी प्रकार के सांकेतिक व पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। 630 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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