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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्यः स समन्तभद्रगणभृद् येनेह काले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद् भद्रं समन्ताद् मुहुः।।' प्रभाचन्द्र के 'कथाकोश' में भी कहा गया है कि समन्तभद्र ने अपनी 'भस्मक' व्याधि के शमन के लिए वेश बदलकर अनेक स्थानों पर भ्रमण किया। अन्त में वाराणसी के शिव मन्दिर में विपुल नैवेद्य से उनका रोग दूर हुआ। वहाँ के राजा ने उनको शिव को प्रणाम करने की आज्ञा दी, तब उन्होंने 'स्वयम्भूस्तोत्र' की रचना की। उसी समय 'चन्द्रप्रभस्तुति' के पठन के समय शिवलिंग से भगवान चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रकट हुई। श्रवणबेलगोल के उक्त शिलालेख के अनुसार बाद में उन्होंने पाटलिपुत्र, मालव, सिन्धु, टक्क (पंजाब), कांची, विदिशा, और करहाटक (कर्हाड, महाराष्ट्र) में वादों में विजय प्राप्त कर जैनमत को प्रतिष्ठित किया। ___ उन्होंने जैन साहित्य में संस्कृत के उपयोग को पुरस्कृत किया। तार्किक दृष्टि से जैनमत को प्रतिष्ठापित किया। ___ 'आप्तमीमांसा' या 'देवागमस्तोत्र' इनकी 'युगप्रवर्तक' रचनाएँ हैं । इसमें महावीर के उपदेशों का तर्कभूमि पर प्रतिपादन करते हुए 'स्याद्वाद' का सर्वप्रथम, विस्तार से वर्णन किया गया है। युक्त्यनुशासन' में विविध एकान्तवादों को दोषयुक्त प्रमाणित करते हुए 'अनेकान्त' वाद को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया था। 'स्वयम्भूस्तोत्र' और जिनस्तुतिशतक में चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति है। 'रत्नकरण्ड' में श्रावकों के लिए सम्यक् 'दर्शन', 'ज्ञान' और 'चारित्र' के रूप में गृहस्थों के धर्माचरण का विस्तार से स्पष्टीकरण किया गया है। समन्तभद्र का साहित्य विस्तृत नहीं है, परन्तु मौलिक होने से बहुत प्रतिष्ठित है। ___इसका काल वीर नि.सं. की दसवीं शती (373 से 473 ई.) माना जाता है। कुछ विद्वान ई. दूसरी या तीसरी शती मानते हैं। ऐसी मान्यता है कि समन्तभद्र कर्नाटक के कारवार जिले के होन्नावार ताल्लुके (तहसील) के गेरसप्पा के समीप 'हेडल्लि' में पीठ बनाकर निवास करते थे। इस स्थान को संगीतपुर भी कहते हैं। कन्नड़ भाषा में 'हाड्ड' का अर्थ संगीत और 'हाल्ली' का अर्थ नगर या पुर है। अतः हाडल्लि का संस्कृत नाम संगीतपुर है। यहाँ चन्द्रगिरि और इन्द्रगिरि नामक दो पर्वत हैं। इन पर समन्तभद्र तपश्चरण करते थे। गेरसप्पना के जंगल में अब भी शिलानिर्मित चतुर्मुख मन्दिर, ज्वालामालिनी मन्दिर और पार्श्वनाथ का जैन चैत्यालय है। वहाँ दूरी तक प्राचीन खण्डहर, मूर्तियाँ आदि मिलते हैं , जिससे वहाँ विशाल बस्ती होना प्रमाणित होता है।' ऐसी किंवदन्ती है कि यहाँ जंगल में एक 'सिद्धरसकूप' है। कलियुग में धर्मसंकट पैदा होने पर इस रसकूप का उपयोग होगा। 'सर्वांजन' नामक अंजन आँख में आँजने से इस कूप को देखा जा सकता है। इस अंजन का प्रयोग समन्तभद्र के 'पुष्पायुर्वेद' 628 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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