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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धारण करने वाले योगियों ने जान लिया। इस प्रकार यह सम्पूर्ण आयुर्वेद शास्त्र ऋषभनाथ तीर्थंकर के बाद अजितनाथ, सम्भवनाथ आदि चतुर्विंशति (महावीर) तीर्थंकर पर्यन्त अनवरत रूप से चला आया है। (अर्थात् चौबीसों तीर्थंकरों ने इसका प्रतिपादन किया है।) यह अत्यन्त विस्तृत है, दोष-रहित है तथा गम्भीर विवेचन से युक्त है। तीर्थंकरों के मुखारविन्द से स्वयं प्रकट होने के कारण 'स्वायम्भुव' (स्वयम्भू) है । अनादिकाल से चले आने के कारण (बीजांकुर न्याय से) सनातन है और गोवर्धन, भद्रबाहु आदि श्रुत केवलियों के मुख से अल्पांग ज्ञानी या अंगांग ज्ञानी मुनियों के द्वारा साक्षात् सुना हुआ है। अभिप्राय यह है कि श्रुतकेवलियों ने अन्य मुनियों को इस शास्त्र का उपदेश दिया। इस प्रकार श्री उग्रादित्याचार्य के उक्त कथन से यह सुस्पष्ट है कि यह आयुर्वेदशास्त्र त्रिलोक-हितार्थी तीर्थंकरों के द्वारा प्रतिपादित होने से जिनागम है। उनसे गणधर, प्रतिगणधरों ने इसे ग्रहण किया और प्रतिगणधरों/ श्रुतकेवलियों एवं उनके पश्चाद्वर्ती अन्य मुनियों ने यथाक्रम से उसे जाना। इसी क्रम में जिन मुनियों जैनाचार्यों ने आयुर्वेद विषय को अधिकृत कर वैद्यक ग्रन्थों की रचना की है, उनका क्रमानुसार वर्णन निम्न प्रकार हैश्री समन्तभद्र (ई. चतुर्थ शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी) दक्षिण की दिगम्बर-आचार्य-परम्परा में समन्तभद्र का नाम विशेष रूप से स्मरणीय है। ये प्रसिद्ध वादी, न्याय-व्याकरण-वैद्यक-सिद्धान्त में निष्णात और दार्शनिक थे। ये पूज्यपाद से पूर्ववर्ती थे। कर्नाटक में इस महान् तार्किक का अवतरण न केवल जैन इतिहास में किन्तु समस्त-दार्शनिक साहित्य के इतिहास में एक स्मरणीय युगप्रवर्तक रूप से माना जाता है। भद्रबाहु, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यों को दक्षिण के प्रसिद्ध द्रविड़ संघ के नन्दिसंघ का बताया जाता है। आप्तमीमांसा' की एक हस्तप्रति के अनुसार समन्तभद्र उरगपुर (वर्तमान उरैयूर, तमिलनाडु) के राजकुमार थे। 'जिनस्तुतिशतक' के एक पद्य से ज्ञात होता है कि इनका मूल नाम शान्तिवर्मा था। .. श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर स्थित पार्श्वनाथमन्दिर में लगे 'मल्लिषेण प्रशस्ति' शिलालेख (सन् 1128) में कहा गया है कि इनको 'भस्मकव्याधि' हुई थी, जिस पर इन्होंने विजय पायी थी, पद्मावती देवी से उदात्तपद प्राप्त किया था, अपने मन्त्रों से चन्द्रप्रभ की मूर्ति प्रकट की थी। कलिकाल में इन्होंने जैनधर्म को प्रशस्त बनाया, सब तरफ से कल्याणकारी होने के कारण (भद्रं समन्ताद्) ये 'समन्तभद्र' कहलाये 'वन्द्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटुःपद्मावति देवता दत्तोदात्तपदः स्वमन्त्रवचनव्याहूतचन्द्रप्रभः। आयुर्वेद (प्राणावाय) की परम्परा :: 627 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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