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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रतिपादित हैं। मनुष्य के व्यक्तिगत दैनिक आचरण का प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर किस प्रकार पड़ता है और मिथ्या या अहित आचरण किस प्रकार रोगोत्पत्ति का मूल कारण है तथा व्याधितावस्था में उपवास, अहित द्रव्यों के सेवन से विरति, उबाले हुए जल का सेवन, औषधि एवं पथ्य सेवन हेतु नियत काल का निर्देश आदि समस्त विषय मनुष्य के आचरण से सम्बन्धित हैं और यही आयुर्वेद का मुख्य प्रतिपाद्य है। आयुर्वेद या वैद्यक विद्या में चिकित्सा सम्बन्धी सिद्धान्तों के प्रतिपादन के अतिरिक्त आहार-चर्या एवं आचरण-सम्बन्धी विषयों की प्रमुखता दी गयी है। रोगोपचार हेतु भी पथ्य के अन्तर्गत आहार सम्बन्धी नियमों तथा आचरण-सम्बन्धी अन्यान्य सावधानियों की समीचीन व्यवस्था की गयी है। जैसे ज्वर में लंघन (उपवास) का निर्देश, उष्णोदक सेवन का विधान, विश्राम आदि का निर्देश। कास-श्वास में दही, केला, उड़द की दाल का निषेध, आयास, अध्वगमन, दिवाशयन आदि का निषेध तथा लघु और उष्णगुण-प्रधान आहार सेवन का विधान । इसी प्रकार अन्य सभी व्याधियों में हिताहित विवेक पूर्वक पथ्यापथ्य का विधान बतलाया गया है। सभी प्रकार की आहार-चर्या तथा मनुष्य द्वारा की जाने वाली क्रियाएँ मनुष्य के आचरण की ही अंग हैं। अतः उन्हें द्विविध आचरण के अन्तर्गत माना जा सकता है-हिताचरण और अहिताचरण। इस प्रकार यह आयुर्वेदशास्त्र भी एक प्रकार का आचार-शास्त्र ही है। सम्पूर्ण जैन वाङ्मय को चार अनुयोगों में विभाजित करने की दृष्टि से उपर्युक्त विवेचन के आधार पर आयुर्वेद शास्त्र को चरणानुयोग के अन्तर्गत परिगणित किया जा सकता है। चरणानुयोग में सभी प्रकार का आचार (आचार-विहार, आचरण आदि) उल्लिखित है। अतः आयुर्वेद में आचरण-सम्बन्धी नियमों एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन होने से वह भी चरणानुयोग के अन्तर्गत परिगणित किया जाना चाहिए। इस प्रकार जैन धर्मानुसार आयाद भी अन्य शास्त्र या विद्याओं की भाँति द्वादशांग श्रुत के अन्तर्गत विवक्षित है। द्वादशांग श्रुत चूँकि तीर्थंकर की वाणी द्वारा उद्घाटित है, तद्वत् आयुर्वेद भी तीर्थंकर की वाणी द्वारा उद्भुत है। इसका प्रतिपादन श्री उग्रादित्याचार्य ने निम्न प्रकार से किया है दिव्यध्वनि-प्रकटितं परमार्थजातं साक्षात्तथा गणधरोऽधिजगे समस्तम्। पश्चात् गणाधिपनिरूपितवाक्प्रपंचमष्टार्थनिर्मलधियो मुनयोऽधिग्मुः।। एवं जिनान्तर-निबन्धनसिद्धमार्गादायातमायतमनाकुलमर्थगाढम्। स्वायम्भुवं सकलमेव सनातनं तत् साक्षात् श्रुतदलैः श्रुतकेवलिभ्यः।। __ अर्थात् इस प्रकार की भगवान की दिव्यध्वनि द्वारा प्रकटित (आयुर्वेद सम्बन्धी) समस्त (चार प्रकार के) तत्त्वों को साक्षात् गणधर परमेष्ठी ने जान लिया। तदनन्तर गणधरों द्वारा निरूपित वस्तु स्वरूप को निर्मल मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्यय ज्ञानको 626 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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