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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कलापी परम्परा पर आधारित है ( प्रभुदयाल अग्निहोत्री, पृ.66-67); (3) कातन्त्र का अपर नाम कालापक है, उसके पठन-पाठन की परम्परा गाँव-गाँव में थी (ग्रामे - ग्रामे कालापकम् - पतंजलि महाभाष्य, 4/3/109); प्रो. बेल्वल्कर तो यहाँ तक कहते हैं कि कातन्त्र जितना लोक - विश्रुत था, उतना अन्य शास्त्र नहीं)। इतना ही नहीं, बल्कि उसके पठन-पाठन की परम्परा भारत के बाहर भी थी ( युधिष्ठिर मीमांसक, पृ. 326), बल्कि एक बात और कि ऐन्द्र - कालापक - कातन्त्र ने सम्पूर्ण भारत के व्याकरण - चिन्तन को प्रभावित किया - यही कारण है कि स्वयं पाणिनि सम्प्रदाय में जिन पूर्व व्याकरण परम्पराओं का उल्लेख है, उनमें कालापक भी है। प्रो. लक्ष्मीनारायण तिवारी पालि के काच्चायन व्याकरण को पूरी तरह कातन्त्र से प्रभावित मानते हैं (काच्चायन की भूमिका, पृ. 38), डॉ. बर्नल ने तोलकाप्यम् को भी इस परम्परा से प्रभावित माना है (प्रो. बेल्वल्कर, पृ. 9)। प्रो. बेल्वल्कर ने ही एक उद्धरण देते हुए यह बात कही कि यह कालाप व्याकरण, जो छन्दशास्त्र में अर्थात् वेदादि के पारायण में लीन हैं, अल्प बुद्धि वाले हैं, अन्य शास्त्रों के अध्ययन में रत हैं, व्यापारी हैं, कृषि आदि कार्यों में लगे हैं, इतना ही नहीं, बल्कि जो लोक-कल्याण की यात्राओं में संलग्न हैं, ईश्वरवादी हैं, व्याधियों से घिरे हैं तथा आलस्य से युक्त हैं, ऐसे जनों को शीघ्र बोध कराने के लिए रचा गया है। (छान्दसः स्वल्पमतयः शास्त्रान्तररताश्च ये । वणिक् सस्यादिसंस्कृता: लोकयात्रादिषु स्थिताः । ईश्वराः व्याधिनिरतास्तथालस्ययुताश्च ये । तेषां क्षिप्रप्रबोधार्थमनेकार्थं कालापकम् ।। – प्रो. बेल्वल्कर, पृ. 68, रामसागर मिश्र, पृ. 10)। इन उल्लिखित प्रयोजनों के अतिरिक्त मुझे लगता है कि हमारी सम्पूर्ण परम्परा वाचिक रही है, अतः व्याकरण की भी वाचिक ही रही होगी, महाभाष्य में प्रयुक्त आह्निक आदि शब्द इस बात की ओर संकेत भी देते हैं कि एक दिन में पढ़ाया जाने वाला या चर्चा किया जाने वाला पाठ आह्निक है। चूँकि 'इन्द्रेण प्रोक्तम् ऐन्द्रम्' की व्युत्पत्ति के अनुसार इन्द्र द्वारा कहे हुए रूप में होने के कारण ऐन्द्र व्याकरण वाचिक रूप में चलता रहा, यह परम्परा भारत के या भारत के आसपास के किसी एक क्षेत्र में ही रही होगी - ऐसा भी नहीं है, बल्कि यह सम्पूर्ण भारत व आस-पास लम्बे भू-भाग में प्रचलित रही, जिसकी पुष्टि कातन्त्र के बहुविध - बांग्ला व कश्मीरी आदि पाठों से होती है, यथा-' ते वर्गाः पच पच पच (रूपमाला), ते वर्गा पच पचश: (न्यास 1/1/10) ' यह स्थिति सामान्यतः पाणिनि की परम्परा की नहीं है । इसप्रकार के पाठ यह संकेत देते हैं कि कातन्त्र का प्रयोग - फलक बहुत विस्तीर्ण था और इसीलिए इसके प्रयोक्ताओं के बीच में बहुपाठ प्रचलित थे । ... और जब अन्य शास्त्रों की तरह ऐन्द्र की वाचिक परम्परा क्षीण होती नजर आई, तब कातन्त्रकार ने उस परम्परा को पूर्णतन्त्र का रूप देते हुए कातन्त्र रच दिया, पर उसमें दो सम्भावनाएँ विशेष हैं- (1) लोक में प्रचलित विस्तीर्ण परम्परा का हिस्सा होने के कारण यह अपने आप में सहज व सरल रूप में रच गया, (2) व्याकरण - -गृहीताओं को सरलता से समझ में आ जाये - इसका विशेष 576 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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