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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra है । यथापाणिनि काम्यच् यत् ल्युट् अनीयर् www. kobatirth.org शाकटायन काम्य य अन अनीय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शतृ अतृ भारतीय व्याकरण के परिदृश्य को ध्यान से देखें, तो एक बात साफ उभरकर आती है कि यहाँ के व्याकरण ग्रन्थों को दो वर्ग में रखा जा सकता है- (1) वे ग्रन्थ, जिनमें प्रत्याहार / माहेश्वर सूत्रों जैसी संकल्पना ही नहीं है या उसे स्थान नहीं दिया गया; (2) इस वर्ग में वे ग्रन्थ आते हैं, जिन्होंने प्रत्याहार / माहेश्वर सूत्रों के आधार पर व्याकरण शास्त्र का पुरस्सरण किया। कातन्त्र प्रत्याहार सूत्रों / माहेश्वर सूत्रों के बिना लिखा गया व्याकरण है। अब मैं कातन्त्र के सन्दर्भ से यहाँ बात करना चाहता हूँ । आज कातन्त्र के स्वरूप को लेकर यह चर्चा कुछ लोग करने लगे हैं कि इस व्याकरण का उद्देश्य कम समय में संस्कृत व्याकरण की जानकारी / दक्षता उपलब्ध करा देना मात्र है, क्योंकि पाणिनीय व्याकरण को पढ़कर दक्षता पाने में लगभग बारह वर्ष लगते हैं / थे; इसलिए यह व्याकरण पाणिनि के व्याकरण का केवल संक्षिप्त रूप भर है, पर मुझे यह मान्यता समीचीन नहीं लगती है। इसके दो प्रमुख कारण हैं - (1) भारतीय परम्परा में कोई वस्तु या विचार केवल इसलिए रचा जाता हो या रची गई हो कि उसे पहले से केवल छोटा करना है - इसके उदाहरण सामान्यतः हमें नहीं मिलते हैं, क्योंकि हमारी पूरी परम्परा जहाँ एक ओर विचार के मूल उत्स व प्रकृति को रेखांकित करती है, वहीं दूसरी ओर उसकी पल्लवन पद्धति को, इसलिए हमारे यहाँ कोई भी रचना केवल संक्षेपण के लिए नहीं होती; (2) हमारे यहाँ कोई भी रचना भिन्न रूप में तब रची जाती है कि जब यह पड़ताल हो चुकी होती है कि निश्चित समय अवधि में पहली रचना ठीक तरह से पूरी बात नहीं कह पाती और तत्सन्दर्भित परिस्थिति में रचनाकार को लगता है कि उपलब्ध रचना में पल्लवित विचार समुचित नहीं हैं या हम उक्त पल्लवित विचार से भिन्न दृष्टि रखते हैं, फलत: हमारे लिए अपने विचार पुरस्सरण के लिए एक नयी रचना अपरिहार्य है । यहाँ इस आलेख में प्रयोजनीयता पर चर्चा तीन दृष्टियों से करना अपेक्षित है - (1) कातन्त्र आखिर कातन्त्रकार के द्वारा क्यों रचा गया ?... (2) कातन्त्र में ऐसा क्या है, जो अन्यों से भिन्न है ?... (3) कातन्त्र पर अब आज बात करने की जरूरत क्यों है ? .... कतन्त्र के सम्पूर्ण साहित्य में जो सन्दर्भ मिलते हैं, उनसे तीन बातें उभरकर आती हैं- (1) कातन्त्र ऐन्द्र परम्परा का व्याकरण है तथा हो सकता है कि उसका संक्षिप्त रूप भी हो; (2) कातन्त्र कालापक व्याकरण का संक्षिप्त रूप है और वह पाणिनि से पूर्ववर्ती व्याकरण :: 575 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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