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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org विहित वर्ण समुदाय प्रत्यय है । (प्रत्ययः कृतोऽषष्ठ्याः । 1/1/41) भाषाविज्ञान या शब्दशास्त्र की इकाई वाक्य को भी शाकटायन ने मौलिक रूप से परिभाषित किया है। साक्षात् अथवा परम्परा से अप्रयुज्यमान तिडन्त का विशेषण प्रयुज्यमान अथवा अप्रयुज्यमान तिङन्त के साथ वाक्य होता है । (ति वाक्यम् 1/1/61) पद की इकाई धातु की व्याख्या भी शाकटायन की अपनी मौलिक है । क्रिया की प्रवृत्ति जिस वर्ण अथवा शब्द के द्वारा अभिधेय हो, वह धातु है । (क्रियार्थी धातुः (1/1/ 22) I तपरः तत्कालस्य । स्थानिवदादेशो ऽनलविधौ । सुप्तिडतं पदम् । शाकटायन शब्दानुशासन की एक विशेषता संक्षेपीकरण भी है। संक्षेपीकरण को बरतने में शाकटायन ने इत् संज्ञा के स्थलों को बहुत कम कर दिया है; परिणामतः सूत्र भी कम बनाने पड़े हैं और प्रत्यय भी छोटे अर्थात् संक्षिप्त हो गए हैं। जहाँ पाणिनि व जैनेन्द्र ने अनेक स्त्री प्रत्यय बनाए, वहाँ शाकटायन ने सम्पूर्ण स्त्री प्रत्ययों के स्थान पर अपने शास्त्र में केवल दो आङ् व डी प्रत्यय ही प्रयुक्त किए हैं। शाकटायन ने वैदिक वाड्मय के लिए अपने व्याकरण में नियम नहीं प्रतिपादित किए हैं, अस्तु इससे भी कई सौ सूत्रों का प्रयोग कम हुआ है। इस संक्षिप्तता की प्रविधि में शाकटायन ने सूत्रों को भी संक्षिप्त किया है। जहाँ पाणिनि, चान्द्र व कातन्त्र अनेक पदों वाले सूत्रों का व्यवहार करते हैं, वहाँ शाकटायन ने केवल मात्र एक पद वाले अनेक सूत्र ही बनाए हैं अथवा सूत्रों की निर्माण की प्रक्रिया को ही संक्षिप्त किया है। यहाँ प्रस्तुत शाकटायन की सूत्रात्मक संक्षिप्ति को निम्न सूत्रों की तुलना करने पर प्रत्यक्ष कर सकेंगे। यथा पाणिनि आदिरन्त्येन सहेता। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शाकटायन सात्मेतत् 1/1/1 तेयान् 1/1/3 स्थानीवानलाश्रये 1/1/50 सुड्पदम् 1/1/62 अनेकशः पाणिनि के एक से अधिक सूत्रों को शाकटायन ने एक सूत्र में ही संक्षिप्त किया है । यथा शाकटायन पाणिनि ढोढे लोपः । रोरि । 1/1/31 दोनों के स्थान पर एक सूत्र ही कहीं-कहीं शाकटायन ने सम्पूर्ण प्रकरण को एक सूत्र में ही संकलित कर लिया है। जैसे समस्त इत् संज्ञा विधायक सूत्रों की विधि को एक ही सूत्र 'अप्रयोगीत्' (1/1/5) संक्षेपीकरण की प्रक्रिया में शाकटायन ने प्रत्यय एवं आगमों को भी संक्षिप्त किया 574 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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