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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ध्यान रखते हुए रचनाकार ने ऐसे सहज रूप में कातन्त्र की रचना की । ध्यान से रचना के वैचारिक / दार्शनिक पक्ष पर विचार करें, तो यह बात भी स्पष्ट रूप में उभर कर आती है कि कातन्त्र सहज, सरल और छोटा तन्त्र होते हुए भी वैचारिक रूप में बड़ी समृद्ध एवं पुष्ट रचना है। भाषा का आधार वाक्य होता है और वाक्य का आधार पद और पद के बिना भाषा की गति नहीं होती है, अर्थात् भाषा का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है । इसलिए भाषा के प्रयोजन की सिद्धि का साक्षात् कारण पद है। पाणिनीय परम्परा शब्द में या पद में ही जोड़े जाने वाले योजक प्रत्ययों के आधार पर पद के निर्माण की बात करती है, अर्थात् पद की पहचान योजक विभक्ति प्रत्ययों के आधार पर ही पाणिनि परम्परा में सम्भव है। इसीलिए तो वहाँ पद की परिभाषा देते हुए आचार्य पाणिनि कहते हैं कि 'सुप्तिङन्तम् पदम् ' पर यह परिभाषा कातन्त्रकार को मान्य नहीं है और वे कहते हैं कि 'पूर्वपरयोरर्थोलब्धौ पदम् ' । इस परिभाषा को ध्यान से देखें तो यह बात स्पष्ट दिखती है कि शर्ववर्मा की दृष्टि पद की सिद्धि में भी भाषा के चरम लक्ष्य अर्थोपलब्धि पर रही है । वे उन शब्दों को पद मानने को तैयार नहीं, जिनमें केवल योजक विभक्ति प्रत्यय लगे हों और प्रकृति से युक्त हों, पर अर्थोपलब्धि न करा रहे हों। उन्हें तो ध्वनियों की वह संगठित राशि ही पद के रूप में स्वीकार है, जो अर्थोपलब्धि कराती है अर्थात् साक्षात् अर्थ-बोध का कारण है, इसलिए वे ऐसी ध्वनियों के समूहों को पद के रूप में नहीं स्वीकारते, जो सूक्ति व पद से युक्त तो हों, पर सार्थक अर्थ लिए न हों। इसके साथ ही साथ उनके मत में ऐसी ध्वनियों का समूह भी पद होने की अर्हता नहीं रखता, जो केवल प्रकृति के साथ जुड़ने की सम्भाव्यता के कारण जुड़ता हो, वस्तुतः वह भाषा में स्वीकार न हो । भाव यह है कि कातन्त्रकार यह कहना चाहते हैं कि सब प्रकृतियों के साथ सब प्रत्यय नहीं जोड़े जा सकते। किस प्रकृति के साथ कौन-सा प्रत्यय जुड़ेगा - इसकी संगति भाषा में बहुत महत्त्वपूर्ण है; यह दो रूपों में होती है- एक तो किस प्रत्यय के साथ कौन-सी प्रकृति आती है इस दृष्टि से, और दूसरी किस प्रकृति के साथ कौन-सा प्रत्यय जुड़ता है इस दृष्टि से, पर ये दोनों दृष्टियाँ सीधे नियन्त्रित होती हैं अर्थोपलब्धि से । इस पूरे के पूरे भाषायी दर्शन को कातन्त्रकार सिर्फ एक सूत्र से रख देते हैं और उनकी इस दृष्टि को लेकर ही हमें भाषा में निरन्तर यह परीक्षण करते रहना चाहिए कि ध्वनियों का वह समूह ही पद हो सकता है, जो अर्थोपलब्धि का साधन हो; जो अर्थोपलब्धि का साधन नहीं है, वह पद नहीं हो सकता । कातन्त्र में ध्वनियों के जिस स्वरूप की चर्चा मिलती है, वह स्वरूप भी पाणिनीय परम्परा के ठीक समान नहीं है, यथा- ङ् ञ्, ण्, न्, म् ध्वनियाँ पाणिनीय परम्परा में नासिक्य कही गयी हैं, जबकि कातन्त्रकार इन्हें अनुनासिक कहते हैं। सूत्र है— 'अनुनासिका डंगनमा:' 1/1/13 | इससे स्पष्ट है कि दोनों परम्पराओं में इन ध्वनियों को एक जैसा नहीं माना गया। यदि इन ध्वनियों के भौतिक उच्चारण को भी देखा जाय, तो भी यह बात For Private And Personal Use Only -- व्याकरण :: 577
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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