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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वीकृत किया है। जैनेन्द्र पंचाध्यायी में जैनेन्द्रकार ने ऋलक के स्थान पर शब्दार्णव में ऋक प्रत्याहार ही रखा है, अर्थात् ल का अन्तर्भाव ऋ में ही कर लिया है। वस्तुतः लौकिक संस्कृत में मूल अर्थात् धातु के रूप में प्रयुक्त लकार से बनने वाला कोई शब्द है भी नहीं, इसीलिए ल का उल्लेख पाणिनि की परम्परा की तरह स्वतन्त्र रूप से जैनेन्द्र में नहीं किया गया है। ___ जैनेन्द्र में कारक-क्रम पाणिनि के ही समान क्रमशः अपादान, सम्प्रदान, करण, अधिकरण, कर्म और कर्ता के रूप में है। कारकों में कर्ता, अधिकरण और करण की परिभाषा जैनेन्द्र की पाणिनि के समान ही है। केवल 'आधारोऽधिकरणम्' इस पाणिनि के सूत्र के अधिकरण पद को जो पाणिनि ने नपुंसकलिंग में प्रयुक्त किया है, जैनेन्द्र ने पुल्लिंग में 'अधिकरणः' करके रखा है। आधार की व्याख्या करते हुए महावृत्तिकार लिखते हैं-'यदधीना यस्य स्थितिः, स तस्याधारः' अर्थात् जिसके अधीन जिसकी स्थिति होती है, वह उसका आधार होता है। अपादान, सम्प्रदान एवं कर्म की व्याख्या में जैनेन्द्र ने चमत्कृति की है। अपादान के सन्दर्भ में जहाँ पाणिनि केवल'ध्रुवमपायेऽपादानम्' कहते हैं, वहाँ जैनेन्द्र ने 'ध्यपाये ध्रुवमपादानम् (जै.1/2/110)' कहा है अर्थात् बुद्धिपूर्वक अपाय साध्य में जो ध्रुव है, वह अपादान होता है। महावृत्तिकार ने 'प्राप्तिपूर्वक विश्लेष को अपाय कहा है और बुद्धि के द्वारा किए हुए अपाय को ध्यपाय (धिया अपाय:), अविचल अथवा अवधिभूत को ध्रुव माना है।' इस परिभाषा में व्यवहृत जैनेन्द्र के विशिष्ट शब्द या पद ध्यपाय की सार्थकता के लिए महावृत्तिकार का मत है कि पाणिनि के केवल अपाय कथन से 'अधर्माज्जुगुप्सते' आदि में अपादानत्व नहीं घटता, जबकि वस्तुतः व्यवहार में है। प्रेक्षापूर्वक दुःख-हेतु अधर्म है, इसप्रकार की बुद्धि के द्वारा जो सम्प्राप्य है, उससे जो निवर्तित करता है, वहाँ अपादानत्व हुआ। इसप्रकार ध्यपाय पद के रखने से 'चौरेभ्यः बिभेति, अध्ययनात् पराजयते, उपाध्यायादधीते, यवेभ्यो गां वारयति, कूपादन्धं वारयति, अकार्यात्सुतं वारयति' आदि उदाहरणों में प्रयुक्त क्रमश: चौर, अध्ययन, उपाध्याय, यव, कूप और अकार्य इन सभी में अपादानत्व घट जाएगा। इसप्रकार जैनेन्द्र की अपादान परिभाषा में निहित चिन्तन जैनेन्द्र का अपना मौलिक है। इसीप्रकार सम्प्रदान के विषय में जैनेन्द्र की उक्ति है-'कर्मणोपेयः सम्प्रदानम्' (1/ 2/111) अर्थात् कर्म के द्वारा जो उपेय/प्राप्य अर्थ है, वह कारक सम्प्रदान होता है। 'कञप्यम्' (1/2/120) कर्ता के द्वारा, क्रिया के माध्यम से जो आप्य है, उसे पूज्यपाद ने कर्म कहा है- 'प्राप्यं विषयभूतं च निर्वयं विक्रियात्मकम्। कर्तुश्च क्रियया व्याप्यभीप्सितानीप्सितेतरत्।'-महावृत्तिकार अभयनन्दि के द्वारा उद्धृत इस श्लोक के सभी अंशों-प्राप्य, विषयभूत, निर्वर्त्य, विक्रियात्मक, कर्ता की क्रिया के द्वारा व्याप्यता, ईप्सित और अनीप्सित में जैनेन्द्रोक्त लक्षण की व्याप्ति के कारण कर्मत्व सहज घट जाता है, जबकि पाणिनि के लक्षण की गति केवल ईप्सिततम तक ही है। व्याकरण :: 571 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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