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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कारक के इन तीनों लक्षणों में जैनेन्द्र की संक्षेपण प्रवृत्ति के साथ-साथ उसके चिन्तन की मौलिकता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। जहाँ पाणिनि परम्परा में केवल छ: कारक कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण ही स्वीकृत हैं, वहाँ जैनेन्द्र (महावृत्ति 1/2/126 के अनुसार) एक हेतु कारक को और उपस्थापित करते हैं। इसप्रकार क्रम के अनुसार जैनेन्द्र में कारकों की स्थिति हैअपादान-1/2/110, सम्प्रदान-1/2/111, करण-1/2/114, अधिकरण-1/2/116, कर्म1/2/120, कर्ता-1/2/125 और हेतु-1/2/126। जहाँ पाणिनि ने अदर्शन को लोप माना है, वहाँ जैनेन्द्रकार नाश की 'ख' संज्ञा कहते हैं (जै. 1/1/61)। इससे अभिप्राय यह है कि जहाँ पाणिनि की परम्परा के वैयाकरण शब्द को नित्य मानते हैं, वहाँ पाणिनीय वैयाकरणों के इस मत से जैनेन्द्रकार का साम्य नहीं है, वस्तुत: जैनदर्शन में शब्द को पुद्गल का ही अंग माना गया है। अत: वे उसे अजर-अमर कैसे माने? ... इसलिए वह तो वहाँ अनित्य है और पूज्यपाद जहाँ जैनेन्द्र व्याकरण के प्रणेता हैं, वहीं जैनदर्शन के मूल सूत्र-ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र की भी रचना की टीका 'सर्वार्थसिद्धि' है उन्होंने, तो वे भला शब्द को नित्य कैसे स्वीकारें?...सच, उच्चरित होकर नष्ट होना ही पौद्गलिक शब्द की नियति भी है उनके अनुसार। ___प्रातिपदिक के लिए जैनेन्द्र में 'मृत्' संज्ञा का व्यवहार हुआ है और मृत् अर्थात् प्रातिपदिक की परिभाषा भी जैनेन्द्रकार की अपनी है-'अधुमृत् (जै.1/1/5)''धुवर्जितमर्थवच्छब्दरूपं मृत्संज्ञं भवति-महावृत्तिः' अर्थात् धुवर्जित (धातु से भिन्न) अर्थवान् शब्दरूप मृत्संज्ञक होता है। जबकि पाणिनि अर्थवान् धातुभिन्न प्रत्ययरहित वर्णानुपूर्वी को प्रातिपदिक कहते हैं। वस्तुतः सार्थक वर्णसमुदाय के मूल रूप की प्रातिपदिक और धातु दो ही स्थितियाँ हो सकती हैं, प्रत्यय तो अर्थ के द्योतन का काम करते हैं, न कि अर्थ के धारण का। अतः 'अप्रत्ययः' पद को (प्रातिपदिक) मृत् की परिभाषा के लिए सूत्र में रखने की कोई आवश्यकता नहीं समझी पूज्यपाद स्वामी ने। - जैनेन्द्र की सबसे बड़ी विशेषता है संक्षेपणीयता, वैयाकरण देवनन्दि ने इस संक्षेप की प्रवृत्ति को अपनाने में विभिन्न प्रविधियाँ अपनाई हैं, जिनमें से प्रमुख हैं 1. जैनेन्द्र के रचना-काल के अनुपयोगी प्रकरणों को शास्त्र में न सँजोना, फलतः वैदिक स्वर एवं एकशेष प्रकरण जैनेन्द्र में नहीं हैं। 2. प्रयुक्त इत् संज्ञा के स्थलों को कम करना। 3. सूत्र के पद-क्रम में परिवर्तन। यथा-पाणिनि-आदेः परस्य, जै. परस्यादेः 1/1/ 51- फलत: एक मात्रा का लाघव और वैयाकरण तो अर्धमात्रा के लाघव को ही पुत्रोत्सव मानते हैं, तो एक मात्रा की ह्रस्वता से कितनी प्रसन्नता हुई होगी?..... यह स्वयंसिद्ध है। 4. शास्त्र के अध्यायों का कम करना, फलतः अनुवृत्ति का कार्य पुनः पुनः नहीं करना 572 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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