SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 579
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याकरण प्रो. वृषभ प्रसाद जैन कुछ प्रश्नों के साथ इस आलेख को प्रारम्भ करना चाहता हूँ। पहला प्रश्न यह कि आखिर जैन व्याकरणों या जैन संस्कृत व्याकरण की अलग से बात करने की जरूरत क्या है?... इसी से सम्बद्ध दूसरा प्रश्न और कि यदि जैन संस्कृत व्याकरण या व्याकरणों की बात न की जाए, तो बौद्धिक जगत् की आखिर क्या क्षति होगी या हो रही है, जैसी कि देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभागों की है?.... जैन व्याकरणों या जैन संस्कृत व्याकरण की विषय वस्तु और सामग्री को यदि आप गम्भीर दृष्टि से देखें या विचार करें, तो आपको इन दोनों प्रश्नों के सटीक उत्तर अपने आप मिल जाएँगे। जैन संस्कृत व्याकरण या व्याकरणों के किसी भी पाठ से जब आप गुजरते हैं, तो आप बड़े सहज ही यह महसूसने लगते हैं कि ये जैन संस्कृत व्याकरण के ग्रन्थ पूरी तरह एक भिन्न भाव-धारा पर लिखे गए ग्रन्थ हैं। इतना ही नहीं, बल्कि इनकी भाषा को देखने की दृष्टि भी जैनेतर व्याकरणों से अलग है। इस आलेख में इन बिंदुओं पर हम संक्षेप में ही पाठ आधारित विचार के साथ कुछ बात करना चाहते हैं। सबसे पहली बात यह कि इन जैन संस्कृत व्याकरणों का प्रारम्भ किसी वैदिक देवता के स्मरण के साथ नहीं हुआ है अर्थात् इनके मंगलाचरणों में किसी न किसी जैन पूज्य पुरुष का स्मरण साक्षात् या परोक्ष रूप में हुआ है। दूसरी बात यह कि इनमें एक ओर जहाँ वैदिक संस्कृत की संरचना को लेकर कोई व्याकरणिक नियम नहीं दिये गए हैं, वहीं इनमें से कुछ में पालि प्राकृत-अपभ्रंश की संरचना के नियमों को समाहित किया गया है और कुछ जैन परम्परा विशेष के पारिभाषिकों को भी व्याख्यात किया गया है, जिनकी चर्चा जैनेतर व्याकरणों में लगभग नहीं है। इससे स्पष्ट है कि इन जैन संस्कृत व्याकरणों की भाव-भूमि भिन्न है। इस आलेख में मैं तीन प्रमुख जैन व्याकरणों यथा- जैनेन्द्र, शाकटायन व कातन्त्र को लेकर इस प्रसंग में कुछ चर्चा करूँगा।। जैनेन्द्र व्याकरण का आरम्भ 'सिद्धिरनेकान्तात् ' सूत्र से किया गया है। प्रकृत प्रथम सूत्र में सूत्रकर्ता ने जैनदर्शन के मूल मन्त्र अनेकान्त, जो जीव के अभिलक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन है, से ही प्रकृति-प्रत्ययादि विभाग के द्वारा शब्दों की सिद्धि को भी प्रदर्शित किया है। इसप्रकार अनेकान्त को ग्रन्थकार ने सभी विद्याओं के मूल में 570 :: जैनधर्म परिचय For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy