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हमारे भटकन के क्षेत्रों का बोध कराके असीम और अनन्तानन्त की जानकारी देता है, जो हमें भीतर की ओर ले जाता है । अतः हम जैन भूगोल को जानें और लोकस्वरूप को समझें । "
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" जैन भूगोल का सम्बन्ध 'कर्मसिद्धान्त' से है । कर्म ही हमारी लोक - यात्रा का नियामक तत्त्व है। कर्म ही हमें ऊपर स्वर्ग में ले जाते हैं, ये ही नीचे नरकों में ढकेलते हैं और ये ही हमें बीच में भरमाते हैं तथा ये ही हम अज्ञानियों को संसार - सागर में डुबोते हैं।"
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'भूगोल = भू-वलय शब्द से हमारे चक्राकार भ्रमण का दृश्य हमारे सामने उपस्थित होता है। हम आँखों पर पट्टी बाँधे कोल्हू के बैल की तरह घूम रहे हैं । इसीलिए जैनाचार्यों ने लोक का इतना विस्तृत वर्णन शास्त्रों / ग्रन्थों में किया है कि मनुष्य उस संचरण - मंच को अच्छी तरह जान-समझ ले, जिसपर वह अज्ञानी बना निरन्तर अभिनय कर रहा है । " – (तीर्थंकर - अगस्त 1982 ) 'लोकविज्ञान' को जानने-समझने की यही आवश्यकता/उपयोगिता है ।
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जैन भूगोल में लोक- अलोक — जैन भूगोल सृष्टि/लोक, उसका स्वरूप, स्थितिविस्तार, विभाग और उसके निवासियों की विशद विवेचना करता है । 'लोक' शब्द यद्यपि जन, भुवन, अवलोकन, इहलोक - परलोक, सृष्टि आदि अनेक अर्थों का बोधक है± तथापि जैनवाड्मय में भूगोल के सन्दर्भ में छह द्रव्यों के आधारभूत आकाश को लोक तथा उससे बाहर अनन्त आकाश को अलोक' कहा गया है। जहाँ जीवादि छह द्रव्य देखे जाते हैं, वह लोक है और लोक के बाहर विस्तृत समस्त अनन्त आकाश 'अलोक या अलोकाकाश है । '
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लोकस्थिति/लोकस्वरूप ' - अनन्त अलोकाकाश के बीच निराधार सींके की तरह लोक की स्थिति है । अनन्त - प्रदेशी सर्वाकाश के बहुमध्य भाग में आकाश के बीचोंबीच 343 घनराजू क्षेत्र में असंख्यातप्रदेशी लोक है । निश्चय से यह अकृत्रिम, अनादि, अनधिक, स्वभाव से निष्पन्न, सर्वाकाश के अवयव स्वरूप, अमिट (अचल) अनन्त और नित्य है । इसे किसी ने बनाया नहीं है और न हरि, हर आदि इसे धारण किए हुए हैं।
लोक का आकार - पूर्व-पश्चिम दिशा में लोक का आकार कमर पर दोनों हाथ रखकर पैरों को फैलाकर खड़े हुए पुरुष के आकार - जैसा है। इसका अधोभाग वेत्रासन के समान, मध्यभाग झालर या थाली के समान, और ऊर्ध्वभाग मृदंग के समान दिखाई देता है। यह चौदह राजू' ऊँचा है। उत्तर-दक्षिण में नीचे से ऊपर तक सर्वत्र सात राजू विस्तृत है । पूर्व-पश्चिम में नीचे सात राजू चौड़ा है, फिर दोनों ओर से क्रमशः घटते
512 :: जैनधर्म परिचय
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