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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir घटते सात राजू की ऊँचाई पर मात्र एक राजू चौड़ा है। इसके बाद ऊपर बढ़ते-बढ़ते साढ़े दस योजन की ऊँचाई पर इसकी चौड़ाई 5 राजू हो जाती है। तत्पश्चात् फिर दोनों ओर से घटते-घटते चौदह राजू की ऊँचाई पर इसकी चौड़ाई मात्र एक राजू ही शेष रह जाती है। त्रिलोकरूप क्षेत्र की मोटाई-चौड़ाई-ऊँचाई आदि का वर्णन 'दृष्टिवाद अंग' से निकला है। सनाली – लोकाकाश के बहुमध्य भाग में बीचों-बीच एक राजू चौड़ी-मोटी और 14 राजू ऊँची पोले बाँस की तरह या वृक्ष में स्थित सार की भाँति सार्थक नामवाली 'त्रसनाली' है। यह त्रसजीवों से भरी हुई है। यद्यपि यहाँ पाँचों प्रकार के स्थावर जीव भी होते हैं, पर त्रसजीवों की प्रधानता के कारण इसे 'त्रसनाली' कहा जाता है। यह त्रसजीवों की सीमा है। इसके बाहर कुछ अपवादों को छोड़कर त्रसजीव नहीं पाये जाते हैं। वहाँ केवल एकेन्द्रिय स्थावर जीवों का ही सद्भाव होता है। सर्वार्थसिद्धि और तिलोयपण्णत्ती में त्रसनाली की ऊँचाई कुछ कम 13 राजू की बतलाई गयी है।' मारणान्तिक समुद्घात, उपवाद तथा केवली समुद्घात की अपेक्षा ही त्रसनाली के बाहर त्रसजीवों का सद्भाव सम्भव है, अन्यथा बिल्कुल नहीं। ___ लोकविभाग - लोक के 3 भाग हैं- अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक। लोक का निचला भाग 'अधोलोक' है। ऊपर लोकान्त तक का भाग 'ऊर्ध्वलोक' है। इन दोनों लोकों के बीच में बराबर रेखा में तिरछा फैला हुआ लोक के मध्य का भाग 'मध्यलोक' है। तिरछा विस्तार अधिक होने से इसे 'तिर्यक्-लोक' भी कहा जाता है। समूचे लोक को 'त्रिलोक' भी कहते हैं। ___ वातवलय- यह लोक ऊपर-नीचे चारों ओर से घनोदधिवातवलय, घनवातवलय और तनुवातवलयों से परिवेष्टित है-घिरा हुआ है। ये वातवलय एक प्रकार की वायु के पुंज हैं, जो समस्त लोक को घेरे हुए हैं। गोमूत्र-सदृश-वर्ण वाला घनोदधि, मँगसदृश-वर्ण वाला घनवात तथा अनेक वर्ण वाला तनुवातवलय है। ये तीनों वृक्ष की छाल के सदृश लोक को घेरे हुए हैं। इनके आधार से ही यह लोक आकाश में ठहरा हुआ है। सबसे पहले यह लोक जलमिश्रित वायु के पुंज घनोदधि-वातवलय से घिरा है। इसे सघन वायुरूप घनवातवलय ने बेढ़ रखा है। इसे तीसरे हल्की वायु के पुंज तनु-वातवलय ने परिवेष्टित कर रखा है। ये सब आकाश के आधार हैं और आकाश अपने आधार से स्थित है, क्योंकि आकाश आधार भी है, आधेय भी है। यह स्वप्रतिष्ठित है।" आकाशमात्मप्रतिष्ठं, तस्यैवाधाराधेयत्वात्- सर्वार्थ. 3/1-367 । इन वातवलयों की मोटाई लोक के निचले भाग से लेकर एक राजू की ऊँचाई तक बीस-बीस हजार योजन है। इसके ऊपर सातवें नरक से मध्यलोकपर्यन्त दोनों पार्यों भूगोल :: 513 For Private And Personal Use Only
SR No.020865
Book TitleJain Dharm Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhprasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2012
Total Pages876
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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